बात उस समय की है जब में स्नातक का छात्र था। मेरा एक मित्र सुनील भी पास में ही एक बेहतरीन सी आवासीय कॉलोनी में रहता था। उस के कमरे पर मेरा जाना लगभग प्रति दिन का ही था। चूंकि हम लोग किराये पर रहते थे तो खाने का प्रबन्ध बाहर से ही करना पडता था। उसी आवासीय कॉलोनी जहाँ सुनील रहता था, में एक लोग के यहाँ से वो लोग टिफ़िन दुवारा खाना लाते तथा कमरे पर ला के खाते थे।
एक दिन सुनील बोला की खाने लेने चलते है। मैंने तो मना कर दिया कि तुम ही जाओ। तब सुनील ही खाना लेने गया। वो कुछ देर बाद वापस आया तो थोडा सा चिंतन की पीड़ादायी मुद्रा में था। मेरे पूछने बोला की यार क्या बताउं ? अभी जब खाना ले के के वहाँ से निकला तो दो शहरी महाशय रात के खाने के बाद टहलने निकले थे कॉलोनी के पार्क के चारों तरफ वाली सडक पर और में उनके पीछे चल रहा था । वो दोनों ही अपने जीवन और रोजमर्रा की परेशानियो पर टहलते हुए चर्चा कर रहे थे। शायद अधिकतर नौकरी पेशे वालों की तरह वो भी अपने पेशे से संतुष्ठ नही थे तभी उनमे से एक अपने तनाव के चरम पर पहुंचकर सहसा ही बोल उठा "साला बस किसान के मजे है एक बार बीज बिखेर आओ खेत में और कुछ दिन बाद जा के काट लो फसल और साला मोटे पैसे में बेच दो कुछ करना ही नही है कोई टेंसन ही नही । "
सुनील तो ये बात सुन क मन ही मन उनकी अज्ञानता और अल्प जानकारीयो पर दुखी हो के चला आया और मुझे बता दी। मुझे बहुत तकलीफ हुई पर, मन ही मन परमात्मा को धन्यावाद दिया की उनका वो मुर्खता पूर्ण कुतर्क मैंने अपने कानो से प्रत्यक्ष नही सुना वरना उसी पल उन दोनो से मेरे को तर्क - वितर्क करना पडता तथा बात आगे बढती तो माहोल हिंसक भी हो सकता था जिससे वो मुझे कॉलोनी में बदतमीजी के आरोप में गिरफ्तार भी करा सकते थे वेसे भी काम आसान था क्योंकि बसपा की सरकार हम लोगो को फसाने के बहाने ही चहिये। ऊपर वाले की दुआ से बच गये.
अब बात शुरु करते है किसानों की। हालाँकि वो जगह हम 2010 में ही छोड़ चुके है पर वो पंक्ति आज भी याद है अतः चर्चा जायज़ भी है। ये बात सभी भलीभांति जानते है कि अपना देश एक कृषि प्रधान देश है तथा इसकी लगभग 70% जनता का आज भी भरण - पोषण कृषि पर ही निर्भर है। भारत की कृषि वर्षा के ऊपर आधारित है ये बात भी नयी नहीं है। यानी कि मानसून की दरियादिली पर बहुत ज्यादा निर्भरता है। यानी कि अगर मानसून अच्छा न हो तो किसान के दो वक़्त की रोटी के भी लाले पड जाते है .ऊपर से पीढ़ी दर पीढ़ी, कृषि योग्य जमीन में आती कमी जिससे कि एक किसान के हिस्से में मुश्किल से परिवार चालने के लायक भी जमीन नही बच पा रही है अधिकतर मामलो में यही देखने मे आ रहा है। ज्यादा आवासीय जमीन की मांग के चलते कृषि योग्य जमीन का व्यवसाय किया जा रहा है जिससे जमीन की किल्लत दिन प्रति दिन बढती जा रही है। सिंचाई के साधनो में नलकूप और नहरों पर निर्भरता है और इनका हाल यह है कि नलकूपों के लिए बिजली नही है और नहरो में कभी टेल तक पानी पहुँचता नही है। और डीजल से सिचाई इसकी दरों को देखते हुए सम्भव नही। यानी वक़्त पे पानी न मिल पाने से फसल की तबाही अक्सर ही हो जाती है जैसा समाचार पत्रो में छपता ही रहता है की फलां फलां जगह सुखा ग्रस्त है फसल सूखे से नष्ट हो जा रही है।
ये तमाम बाते थी पानी कि कमी के कारण। अब अगर ज्यादा मानसून के चलते बाढ़ आ जाये तो दूर दूर तक जल के कारण कुछ नही बचता। यानी कि सब कुछ भगवान भरोसे इस पर किसान का कोई बस नही।
अब बात करते है कि फसल के शुरु में बीज चहिये जो कि बुआई के वक़्त किसी भी सरकार कि तरफ से उपलब्ध नही करवाया जाता, हाँ सरकारी योजनाओ के अनुसार हमेशा हो जाता है पर वो सब कागजो तक सीमित है। यानी के किसान महंगा क़र्ज़ ले के बीज बाजार से खरीदे फिर उसे बो देने के बाद जी-तोड़ मेहनत करे, महंगे महंगे उर्वरक डाले और तभी सुखा पड जाये या बे मोसम बाढ़ आ जाये। क्या होगा सब बर्बाद।
अब मान लो ऊपर वाले क रहम से 3 - 4 महीने में फसल तैयार हो गयी तब सुरु होता उस से भी बुरा दोर। फसल का कोडी के भाव बिकना। यानि कि अच्छी फसल को भी बनिया नाक-भो सकोड़ के ओने पोने दामो में ऐसे खरीदता है जैसे बहुत ही घाटे में जाने वाला हो। खैर किसान की मजबूरी होती है की क़र्ज़ चुकाना है, कुछ खाने को भी बचाना है सो दे देता है भले ही अपनी मूल लागत मिले या न मिले वरना वैसे भी फसल के सड जाने के बाद कुछ नही मिलना। अब किसान के घर से फसल उठते ही हो जाती है सोने के भाव। यानी जो फसल किसान के यहाँ से 500 के भाव गयी वो अब जाएगी 800 में बनिये की दुकान पर और अंत में ग्राहक को पड़ेगी 900 के भाव। ये हुई बीच में मुनाफा खोरी जिसे रोकने के लिए सरकार हर रोज कदम उठाने को कहती है पर लगता है कदम जमीन में ज्यादा धस गये है की उठ ही नहीं पा रहे है।
इन्ही उपरोक्त कारणों से सम्पूर्ण भारत मे हजारो किसान हर वर्ष आत्म हत्या रहे ले रहे है। अभी एक लेख पढ़ा था अखबार में कि महाराष्ट्र में तो किसान लोगो की लडकियो की शादी तक नही हो पा रही है धनाभाव के कारण। अब इससे बड़ी लाचारी क्या हो सकती है की माँ बाप बच्चो को खिला न सके और शिक्षा न दे सके।
हाँ, हर बजट में, हर सरकारी घोषणा में किसानो का ज़िक्र ज़रूर किया जाता है किसानो को आत्म निर्भर बनाने का वादा किया जाता है लेकिन सालों से हालात वही जस का तस है
लेकिन मेरे देशवासी, कुछ लोगो को लगता है कि साला बस किसान के मजे है एक बार बीज बिखेर आओ खेत में और कुछ दिन बाद
जा के काट लो फसल और साला मोटे पैसे में बेच दो कुछ करना ही नही है।
realty.. very nice
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