शुक्रवार, 22 नवंबर 2013

तहलका वाले का शर्मनाक तहलका

बात  बहुत पुरानी नही हुई है जब दिल्ली में वो शर्मनाक घटना घटी थी पुरे देश में उस घटना ने जो रोष फैलाया वो दुनिया ने देखा।    और शायद उसी वजह से आज हमारे पास एक कानून है।   वो बात अलग है कि कुछ लोगो को न कानून का डर  है, न शर्म है, न हया है, न उम्र का लिहाज है।
         उस वक़्त जब वो घटना घटी थी तो लोग सड़को  थे यहाँ तक कि राष्ट्रपति भवन में घुसने तक आमदा हो गये थे। और इसमें कोई दोराय नही कि उस आन्दोलन कि कामयाबी के पीछे मीडिया का सहयोग बेशक सरहानीय था. 
          चलो उसमे घटना के बाद जो हुआ सब जानते है. पर उस घटना के समय बहुत  लोगो ने अपनी जबान खोली थी बहुत कुछ लिखा था ,बोला था तरह तरह माध्यमो से। पर आज मुझे  लग रहा है कि लोगो कि कथनी और करनी में वास्तव में फर्क़  होता है। . मुझे कल से ही बहुत  दुःख है इस बात का कि इन्सान कितना गिर गया है न शर्म है न हया है न उम्र का लिहाज है.
         मैं उन लोगो के लिए नरम रवैया अपना सकता  हूँ जो अनपढ़ है जाहिल है या अपराधी ही है पर उस उस पागल या  सनकी के लिए नही  जो खुद को  औरत जात  का हमदर्द कहता हो और उनके अधिकारो के लिए बड़े बड़े दावे और भाषण बाज़ी करता हो।   कहने का मतलब है खुद को एक बुद्धजीवी  देवता के तोर पर पेश करता हो  और काम  दानवों  वाले करता हो.
          शायद आप समझ ही गये है कि तरुण तेजपाल नामक एक आदमी कि बात कर  रहा हूँ जो कि तहलका के सम्पादक व  संस्थापक था  कल तक।  उसने  क्या किया ये भी आप जानते ही होंगे। फिर भी बता दूँ  उसने अपनी सहकर्मी,   अपने दोस्त कि बेटी तथा  अपनी बेटी कि दोस्त के साथ ###### किया वो भी बिना रज़ामंदी के लगातार  दो दिन।   मै इसे  किसी और के साथ नही बल्कि उस कि स्वम् कि बेटी के साथ ये बलात्कार मानता हूँ क्योंकि वो उम्र में भी उस कि स्वम् कि बेटी के ही बराबर  थी तथा  खाश दोस्त भी  और खुद उसके दोस्त कि बेटी।  बोलते है कि नशे कि हालत में सब हुआ  पर क्या नशे में लोग अपनी माँ ,बहन,  बेटी   को  भी भूल  जाते है क्या ?  नही ना।  तब तो ये सरासर इरादे से किया हुआ कार्य है।  ऐसा मै  नही कहता खुद उसका ख़त कहता है।  

       सवाल ये है कि जब ऐसे लोग जो  खुद दूसरो को उपदेश देते घूमते है कि ये गलत  है ये सही है फलां ढिमका।  और खुद कम अपराधियो वाले करते है ये पापी।  तो अब  आम आदमी किस पर यकीन करे।   मै कहूँगा कि किसी पर नही।  

और देखो इस इंसान का भोलापन खुद सब कुछ कबूला और कहा  मुझे मलाल है उस घटना का . "अबे सनकी ये कैसा मलाल कि लगातार दो दिन तक इंसान होश में रहने कि बावजूद किसी की इज्जत से खेले  बाद में माफ़ी मांग ले और चलता बने. " 

  खुद ही खुद को सजा मुकरर कर ली वो भी छ:  महीने कि छुट्टी।    इस से कोई पूछने  वाला हो कि अबे ऐसी सजा किस अपराधी को नही चाहिये बे ।   ये सजा नही मज़ा है अपराध करने के बाद का . इससे अच्छा क्या होगा कि कल को कोई कुछ भी करेगा  और अगले दिन कहेगा कि मुझ से गलती हुई है अब में छुट्टी पर जा रहा हूँ।  
      और अब बात करते है तहलका कि बहुत  खुलासे करते थे ये लोग।  हमे भी अच्छ लगता था कि जान कर कर लोगो कि असलियत .  पर इन लोगो ने दुसरो कि असलियत तो खूब पहचानी और लोगो तक पहुँचायी पर अपनी छुपायी और अब किसी तरह असे मामला जब खुल गया तो कहते है कि बात खुल गयी.  अब बहुत दुःख हो रहा है इन्हे। और तो और खुद तरुण का बचाव पर उतर आयें  है बेशर्म।  हद होती है बेशर्मी कि भी।  
      कुछ दिनों पहले एक ढोगी  बाबा ओर  फंसे थे  इसी तरह के अपराध में।  तहलका ने पूरा कच्चा चिट्ठाह खोल दिया बाबा के खिलाप पूरी तहकीकात कि(lhttp://www.tehelkahindi.com/%E0%A4%86%E0%A4%B5%E0%A4%B0%E0%A4%A3-%E0%A4%95%E0%A4%A5%E0%A4%BE/1963.html)  और दुनिया को रु ब रु कराया उस । पर अपने ऊपर आंच  आयी तो भाग लिए।  अगर इंसाफ से वास्तव में ही कोई लगाव था तो तरुण को मामले के सामने आते ही सजा दिलाना चाहिए था ना पर इन लोगो ने मामले को छुपाया इसलिए इन्हे भी सजा मिले।  

  मै भी बड़े शौक से इस पत्रिका को पढ़ता था पर आज खुद पर शर्म आती है. कि कितना वक़्त जाया कर दिया। लोग मुखोटा लगा कर घूमते है।  विश्वास नही होता कि मिडिया से जुड़ा हुआ कोई लगभग बुढा इंसान इसे गिरी हुई हरकत करेगा  पर कि है  ये सच है।  

  
  शर्म शर्म शर्म शर्म शर्म शर्म शर्म शर्म शर्म शर्म शर्म शर्म शर्म शर्म शर्म शर्म शर्म शर्म शर्म शर्म शर्म शर्म शर्म

    

 

सोमवार, 29 जुलाई 2013

मुफ्त की नसीहत -औकात बोध

आज के इस दौर में किसी भी प्राणी को उसका औकात बोध होना बहुत ही जरूरी है और अगर को किसी को अभी तक नही हुआ है  तो मै  उसे अभी तत्काल सलाह दूंगा की  अभी  से अपनी औकात जानने के लिए प्रयासरत हो जाये वरना विश्वास करना, गलत फहमी बड़ी नुकसान दायक होती है और आप को मानसिक पीडा,  जिसे दिल को ठेस  पहुँचना भी  कहते है कभी भी हो सकती है और  इसमें सबसे पहले ये पता लगाना चाहिये की तुम्हारी औकात  तुम्हारे जानने वालो में कितनी है चाहे उसके लिए कोई भी युक्ति अपनानी पड़े  हो सकता है मेरे आज के ब्लॉग से बहुत  से लोगो को आपत्ति हो  पर मेरी  ये बात  किसी हद तक तर्कयुक्त है और इस बात की  सच्चाई का प्रमाण लेना हो तो उनसे ले जो मेरे या आप के साथी लोग  अपने दोस्तों  या परिवार गण इत्यादि पर बहुत  अभिमान करते थे पर एक पल में जब उनका अभिमान चूर चूर हो गया तब उन्हें अपनी औकात का असली वाला बोध हुआ इसी लिए मैने  आज सोचा की क्यों न अपनी औकात का बोध समय रहते कर लिया जाये ताकि यतार्थ में ख़ुशी खशी जिया जा सके नही तो जब कोईओर  हमे हमारी औकात का बोध कराएगा तो हमे बेपनाह दर्द होगा था और हम उस दर्द को किसी को बता भी नही सकते हमे चुप चुप सहना पड़ेगा बस। अपनी औकात जानने की प्रक्रिया में सभी को शामिल करना ही समझदारी है दोस्त, भाई, बहन परिवार , कुछ और खाश  लोग सभी को आज़माना चाहिए समय समय पर। दरअसल फेसबुक के प्रेमियों  के  लिए ये बात और भी जोर शोर से लागू होती है इस आभासी दुनिया ने लोगो को गलत फहमी में रहना सीखा दिया है। वो सोचते है की वो बहुत  बड़े सामाजिक है पर क्या वास्तव में है? जबाब सभी को मालूम है। खेर मै  इस फेसबुक वाली आफत से कोसो दूर हूँ पिछले २ साल से क्योंकि में नही चाहता की मुझे ये भी बताना पडे आज मैने क्या खाया  और किस तरफ देखा और क्या पहना ? मानो साला  फेसबुक न हुई मोहल्ले क सभी रिटायर बूढों की चौपाल  हो गयी सब कुछ उन्हें बताना जरूरी है।और जहाँ तक बात है मेरी औकात की एक ब्लोगर होने क नाते बहुत  दिन पहले ही जान गया था की कुछ को छोड़ सबकी नज़र में फालतू ही तो  हूँ। और किसी से ज्यादा उम्मीद में रखता नही । धोखा कभी भी मिल सकता है इस के लिए हमेशा तैयार रहता हूँ पता नही कहाँ कौन धोखे और  अपमान से नवाज़ दे । और हमे, हमारी औकात भी हमारे कुछ कथित साथियों ने ही बतायी। तहे  दिल से धन्यवाद उन सभी का । वरना न जाने कितने दिन और गलत  फहमी में जीते । आप को भी यही सलाह है दोस्तों जिसे अजमाना है समय रहते अजमा लो वरना आगे होने वाले किसी भी दुःख के तन ही जिम्मेदार रहोगे । हो सकता है आज का मेरा ब्लॉग सभी को नकारात्मक लगे पर सच्चाई है  दोस्तों यहाँ  अधिकतर लोग स्वार्थी  है इस लिए अगर अभी से यतार्थ में जीने की आदत डाल ली जाये तो आसानी है होगी । और ये ब्लॉग मेरे साथ हुई किसी घटना का जबाब या भडास नही है बस एक आप  सभी को मुफ्त की नसीहत है। क्योंकि मै मानता हूँ  आज के दौर में जो ये जनता है कि  उसकी औकात कितनी है वो हो सबसे बड़ा ज्ञानी है कम से कम वो यतार्थ में  रह कर अपनी औकात के हिसाब से कुछ कर तो सकता है

शुक्रवार, 19 जुलाई 2013

आम

आज लगभग दो महीने बाद फिर से ब्लॉग पर हूँ आप की सेवा में , दरअसल अस्वस्थ होने के  कारण सक्रिय नही रह पाया। समय तो था पर जैसा सभी जानते है की मन नही होता उस वक्त जब आप बीमार हो कुछ भी करने का। 

      आम,आमतौर ये शब्द हम  रोज कही  न कही किसी न किसी रूप में इस्तेमाल कर ही लेते है। जैसे कि आम आदमी , आम भाषा , आमतौर , आम रास्ता  आदि। पर सबसे महत्वपूर्ण आम शब्द  है आम

     आम से याद आया की मुझे मई, जून, जुलाई आमतौर पर सबसे ज्यादा पसंद महीने है  इसलिए नही की गर्मी बहुत पड़ती है बल्कि आम के कारण। दरसल मेरी तम्म्न्ना है की काश  मै उस  महापुरुष से  मिल पता जिसने आम को फलो का राजा नाम की संज्ञा दी और उन्हें इस ताज पोसगी के लिए धन्यवाद स्वरुप कुछ भेंट देता। वास्तव में देखा जाये तो आम कोई आम फल नही है बल्कि मै तो मानता हूं कि आम केवल फलो का आम राजा नही बल्कि सम्राट है यानि फल सम्राट आम।

         इसके गुणों की बात की जाये तो अनेक क गुण है लेकिन इसका विशिष्ट स्वाद इसके गुणों के बारे में सोचने की नौबत ही नही आने देता बल्कि  उससे पहले आम , आम प्रेमी के पेट में होता है। आम के अनेको प्रकार और सबका अलग अलग जयका  इसकी तारीफ में चार चाँद लगा देता है।  लखनऊ का आम   किसी नबाब से कम नही। वाह क्या  स्वाद होता है। लंगडा , दशहरी , चौसा, रामकेला आदि  अलग अलग प्रकार अलग अलग बनावट और स्वाद के साथ।   और अगर डाल का आम हो तो कहना ही क्या।  जिसमे टपका का तो कोई सानी ही नही।

       और जब बात आती है आम को खाने की तो असली स्वाद तभी आता है जब इसे पूरी बेसरमी के साथ खाया जाये मतलब की एक बार में सारा छीलकर बोल दो आक्रमण और जब गुठली पर  पहुंच जाओ तो गुठली को इतना चुन्सो कि उसका पीलापन खत्म न हो जाये तभी मन को आम खाने के असली बेसरमी स्वाद का अहसास होता है अब अगर आम भी चाकू और कांटे  के साथ खाया तो क्या खाक आम खाया। आम खाते वक़्त जब तक हाथ-मुहँ न सनें आम से तथा गुठली को मुहं से बार बार निकाल कर  फिर से मुहं में डाल के न चुन्सा जाये तो बेकार है सब। आम की गुठली के अलावा कोई ओर कोई शाकाहारी चीज़ नही जिसे इन्सान एक बार मुहं से निकल के कर  बिना नाक भौं सिकोडे  फिर से उसी उत्सुकता के साथ मुह में डाल ले। यही है आम की खूबसूरती। मेरा एक मित्र तो आम केवल इस लिए खाता है की उसे कब्ज की समस्या है और आम उसका रामबाण इलाज। 
          
        और अगर आम  कुदरती स्वाद चखना है तो पहुँच जाओ आम के बाग में और जितना खा सको  उतना ले कर वही बाग में ही बैठ जाओ खाने  पेड़ो की घनी छाया के बीच ताज़ा ताज़ा आम वो भी सामने बाल्टी में पानी में भीगे हुए और तुम खाट पर  बैठ चुन चुन कर एक एक आम पर आक्रमण बोल रहे हो तब रूह को तृप्त करने वाला अहसास होता है कभी आज़माना और तब बताना। 

बुधवार, 29 मई 2013

आधुनिक फैशन

आजकल मेरे महान देश में फैशन नामक गतिविधि बहुत तेज़ी से अनेक रूपो में अपने  पैर पसार रही है। अतः आज इन्हीं कुछ ना-ना प्रकार की गतिविधियों पर चर्चा होगी।
       फैशन न० 1 
आप देश के किसी भी कोने में चले जाओ यानी के रेल, बस, टेम्पों, घोडा-तांगा, रिक्शा, गांव में सेवानिवृत चचाओ की चौपाल या शहर में सुबह-2 दूध लेने गये नौकरी पेशे वाले लोग या किसी कॉलेज की कैंटीन में बैठे डुड-डुडनी प्रजाति के साथी या नुक्कड़ वाले बनिये की परचून की दुकान या विपक्षी पार्टी के कार्यकर्ता या टयूबवेल पर बैठे बीड़ी पीते किसान या बाबा के हुक्के के चारो तरफ बैठे बुजुर्ग, या दफ्तर से शाम के वापस घर लौटते सरकारी बाबू, इन सभी को दिक्कत है सरकार से या इस देश से, अलग अलग रूपों में। किसी की दिक्कत है तनख्वाह समय से नही आती,किसी की समस्या है फसल के दाम मुनासिब नही है या किसी की परेशानी है कि भ्रष्टाचार बहुत है या किसी को तो ये देश ही नही भाता। हम अल्प शब्दों में कहे तो आप सुबह से ले कर शाम तक किसी भी वक्त अपने घर से निकले आप बिना सरकार या देश की बुराई सुने अपने गंतव्य पहुंच ही नही सकते बशर्ते आप के कानो में रुई न ठुंसी गयी हो, मै इस बात का दावा करता  हूँ की अगर दो या दो से अधिक लोग कहीं  बैठे है तो वहा सरकार या देश के बारे  में बात हुई होगी और अनेक तर्क-कुतर्क हुए होंगे। मानो हर इन्सान अपने दिल में इस देश पर डालने के लिए परमाणु बम लिए बैठा है बस मौका  मिल जाये। 
          समस्या होना अच्छी बात है। समस्या है तो उसका समाधान भी जरूरी है। पर मै मानता हूँ कि आजकल ये  एक फैशन सा बन गया है कि जो देश या सरकार की बुराई जितने अधिक शब्दो और जितनी ज्यादा देर तक कर दे वो उतना ही बड़ा फैशन-परस्त। हर आदमी इस गतिविधि में हिस्सा लेता  है। AC गाडियों  या AC दफ्तरों में बैठ देश की माली हालत का जिक्र करना तथा सिस्टम को कोसना जैसे आधुनिक फैशन और कथित देश-शुभचिंतक लोगो का धर्म हो गया हो। हाँ अगर उन से सवाल  किया जाये कि वो  खुद देश या सरकार को  माली हालत से  निकालने के लिए क्या सहयोग कर रहे? तो साहब लोगो को सांप सूंघ जाता है। करेंगे कुछ नही पर बाते बडी-2 करेंगे।
इस फैशन ने आजकल मेरे नाक में दम कर रखा  है कही  भी जाऊं बस यही देश और सरकार विरोधी बाते मानो आज कल एक दुसरे से बात शुरु करने का पहला वाक्य ही ये बन गया है  " इस देश का कुछ नही होगा "
  मेरे  देशवासियो मेहरबानी करके बचो इस आदत से, इस फैशन में  सरीक हों इससे अच्छा है कुछ देश के लिए करें, न की केवल बातें।
 फैशन न० 2 
आजकल मैं एक और फैशन पर गोर फरमा कर रहा हूँ कि मेरे कुछ युवा साथी सडक या बस या यात्रा के दौरान कानों में मोबाइल या किसी और संगीत यंत्र के हेडफोन  लगाने की आदत या फैशन से ग्रस्त हैं।
     संगीत प्रेम बहुत  अच्छी बात है या यों कहें संगीत बिन जीवन अधूरा है। मै भी संगीत प्रेमी हूँ। पर इस प्रेम में चक्कर में जान का खतरा मोल अच्छी बात नही है। 
   मैने देखा है कि मेरे युवा साथीयो ने इसे बहुत बडा फैशन समझ लिया है कि अगर कुछ काम  नही कर  रहे तो  कानो में हेडफोन ठूस लो चाहे आप सार्वजनिक स्थान पर  हो या यात्रा में। भले ही कोई तुम्हारा जानने वाला पीछे से तुम्हे आवाज़ लगा रहा हो या कोई  बस वाला साइड मांगने को हॉर्न बजा रहा हो। पर उन्हें क्या कानो में हेडफोन है दुनिया भाड़  में जाये। हाँ बस वाला साइड मार जाये तब सब संगीत प्रेम काफूर  जाता है तब ये कोई नही कहता की हमने साइड नही दी थी बस को। क्योंकि कानो में संगीत की आवाज़ आ रही थी न की हॉर्न की। रोज अखबार में देखता हूँ की रेल की पटरियों पर भी लोग कानो में संगीत बजाये टहलते  है या पार करते  है पीछे से रेल आती है लोग शोर मचाते है की हट जाओ रेल आ गयी पर कानो में तो संगीत है और बस। 
     आखिर क्यों इतने लापरवाह है ये मेरे साथी। शायद ये अपने आसपास की दुनिया को अपने स्तर से कम आंकते है और उसकी बातो से बचने के लिए संगीत का सहारा लेते है तभी तो बस में भी बैठेंगे तो हेडफोन लगा के भले ही कंडेक्टर टिकेट लिए शोर मचाता रहे। जबकि घर से बाहर इन्हें अपने कान और आँख खुले रखने चाहियें जैसा की महान लोगो ने कहा  है पर इनसे महान कौन  है कम से कम  ये तो ऐसा  ही मानते है। समाज की बाते न सुनना चाहते न देखना। इनका समाज है फेसबुक और आवाज़ है चैटिंग। बाकि लोग है फालतू और गँवार।
फैशन न० 3
 एक और फैशन जो मै पिछले कुछ वर्षो से महसूस कर  रहा हूँ हमारे आस पास के साथियों का दुआ-सलाम करने का तरीका।  पहले राम-राम , इस्लाम- वलेकुम, सत्श्रीकाल , नमस्ते तथा प्रणाम आदि महान शब्दो का चलन था जिनके उच्चारण या श्रवण मात्र से ही दिल को अति सुकून  प्राप्त होता है। जब भी दो या अधिक का  होता था तो इन्ही शब्दो के साथ सम्मान के साथ बात  शुरु होती थी। 
   पर अब ऐसा शब्द खुल्ले आम सुनने को नही मिलते। इनका स्थान ले लिया है हाय- हेल्लो  ने। ख़ैर मैं इनका भी विरोधी नही हूँ पर जिस प्रकार से मेरे साथीगण हाय- हेल्लो करते है वो  भी गलत है।
    मैने  देखा है कि लोग हाय भी कहते है और किसी को सुनाई  भी नही पड़ता है  केवल होठो से हाय कहने जैसी डिज़ाइन बना देते है आवाज़ नही निकलते आखिर क्यों निकाले उर्जा का हास् होता है मुफ्त में ही ,अरे यार जब काम बिना आवाज़ के ही  रहा है तो आवाज़ क्यों निकाले भई। और सामने वाला भी  इस सम्मान को पा कर  गद गद महसूस करता है खुद को। मेरी समझ ये नही आता जब इतनी शर्म आती है तेज़ आवाज में दुआ सलाम करने में तो लोग करते ही क्यों है क्या जरूरत है डिज़ाइन बनाने की भी। भारत के संविधान में तो इसी कोई मजबूरी दिखाई नही गयी है आम नागरिक की।  मै आज भी तेज़ आवाज़ में सर उठा कर सभी छोटो बडो राम राम करता हूँ और मुझे ऐसा  करके गर्व महसूस  होता है

 



       

मंगलवार, 21 मई 2013

तुम तो पैदा ही "उनकी" सेवा करने को हुए हो

एक दिन पहले ही घर गया हुआ था तो माता जी के कहने पर गाँव से निकटम कस्बे में बाजार करने गया था कि चप्पलो ने साथ देने से इंकार कर दिया और एक चप्पल ने खुद को घायल करते हुए ये सन्देश मुझे दे दिया की बिना उसकी मरम्मत के उसका मुझे घर तक पहुंचना असम्भव है। सोचा की चुंगी पर इसकी इसकी सेवा भी करा दी जाये अतः रुक गये चुंगी पर एक मोची चचा के पास। चचा काफी कमजोर और यही कोई 60 की उम्र के रहे होंगे पर गरीबी और अभाव के कारण प्रतीत 70 के होते थे। चचा ने ग्राहको की सेवा के लिए उसी पेड़ के नीचे 2 कुर्सियां भी डाल रखी थी और वक्त यही कोई दोपहर एक बजा होगा। मैने चचा को चप्पल दे दी चाचा ने भी  सही कर दी फटा-फट और मैं वही कुर्सी पर सवारी के इंतजार में बैठ गया। तभी गांव के ही एक भइया यही कोई उम्र होगी 68  साल(हम दोनों की उम्र में लगभग 45 का अन्तर पर भईया ही लगते है वो मालूम नही उनकी पीढ़ी आगे चल रही है या हमारी ) के करीब, भूतपूर्व हैड मास्टर और स्वभाव में बहुत मजाकिया जो हर बात पर चुटकले छोड़ते है , भी अपनी एक  दादा आदम के जमाने की चप्पल  देते चचा को देते हुए बोले कि "इसे भी कर दे यार पैसा आ कर देता हूँ और चले गये"। मोची चचा ने भी कर दी कुछ देर में भइया  आये और चप्पल मांगते हुए बोले की कितना पैसा  हुआ भई?

मोची चचा:- 5 रुपया 
भइया :-अच्छा 

      तभी भइया ने जो चप्पल सही कराई थी उसकी मरम्मत को अपनी पैनी, मास्टर वाली नजर से जांचना शुरु किया वो भी ऐसे की कोई परिपक्क फुट-वियर अभियंता भी न कर पाए। 

भइया :- अरे कर दी तूने SC(अनुसूचित जाती ) वाली बात।

मोची  नही समझ पाया  की भईया ने किस कारण ये बात कही है और न ही मै।

मोची चचा:- क्या हुआ ?
भइया :- देख ये तूने 2 कील ठोकी है बस, वो भी अभी निकलने को तैयार है और पैसे मांग रहा है 5 रुपया।
मोची चचा:-अरे ढंग से तो की है नही उखड़ेगी ये बहुत तजुर्बा है मेरे को।
भइया :- चल जाएगी 2-4 साल?
मोची चचा:-अबे 2-4 तो तेरा और मेरा ही नही पता चलेगा की नही। एक पैर केले के छिलके पर है और एक गड्ढे मे।
भइया :- साले तू पक्का SC है रे।
मोची चचा:-  फालतू मत बोल पैसे दे।
भइया :- पैसे देते हुए साले वैसे हो तुम BPL हो। ( मुझे इसका मतलब समझाते हुए बोले- बेटे BPL मतलब below poorty line ) और कमाई करते को इनकम टेक्स यानी आयकर देने लायक। सरकार को पहले तुम पर  छापा डलवाना चहिये। बताओ साला 1 मिनट के काम के पाँच रुपया और काम  भी घटिया ऐसे तो तू शाम तक 1500 रूपये कमा  लेगा  फिर कैसा BPL हुआ तू। तू तो इनकम टेक्स के दायरे में है साले ।

मोची चचा:-  अबे तो यहाँ झक्क मराने को थोडे ही बैठे है ( मूल शब्द कुछ और थे पर उनका जिक्र यह सही नही)
भइया :- तो साले  इसका मतलब ये थोड़े ही है की तू डिप्टी कलेक्टर या नायब तहसीलदार के बराबर कमाये। वो भी मुफ्त में
मोची चचा:-  अबे तो महंगाई न बढ़ गयी है अब जब सरकारी अफसरों की तनख्वाह बढ़ रही है तो में न बढ़ाऊं  पैसा साले।
भइया :- अरे  साले  अफसर से तुलना कर रहा है अपनी साले  कहाँ वो पवित्र गंगा नदी और कहा ये तेरे पीछे बहता गंदा नाला। साले अफसर तो well qualified  होते है यानि पढ़े लिखे तब उन्हें इतना मिलता है उसमे भी आयकर। और तू कहाँ का जज है 
मोची चचा:-  अबे तू अपना काम कर  चल निकल यहाँ से।
भइया :-साले  अफसरों की क्लास होती है तुम तो बने ही हो उनकी सेवा करने के लिये।

बस अब तक में दोनों की बहस में आनन्द के साथ सुन रहा था क्योकि दोनो  हम उम्र समान तोर पर बरबरी से अपना पक्ष रख रहे थे पर वो जो अंतिम पंक्ति भइया ने कही मुझे बहुत अजीब लगा और मैने वही टोक दिया भइया  ये आप की गलत बात है ऐसा  नही कहना चहिये किसी को भी  की तुम गरीब हो तो इसका मतलब ये नही की अमीरों की सेवा करने को ही पैदा हुए हुए हो।
             भईया  ने मुझे कहा नही ये सच है  मैने कहा नही। हरगिज़  नही 
 उसके बाद भइया  मुझे घूरते हुए चले गये और आँखों-2  में कह गये की घर मिल तेरे बापू से खबर लिवाता हु तेरी कि बडो लोगो  से बहस करने लगा है लडका जब से बाहर पढने गया है।
खैर बापू के पास बात आयी बापू जानते थे की मै गलत नही था  कुछ नही कहा।
           पर सवाल ये है की कब लोग अपनी मानसिकता को बदलेंगे गरीबो के प्रति ऊपर वाले ने तो उन बेचारो को खुद ही  यहाँ  परेशानीयों  का टोकरा सिर पर  रख के भेजा है क्यूँ और हम इन्हें परेशान करते है?
            कोई गरीब है तो इसक मतलब ये नही की उसका धर्म ही हो अमीरों की सेवा करना और उनकी बातें भी सुनना।  नही, उसे भी सम्मान से जीने का हक है अपनी मर्जी  से जी  खा सकता है, कम से कम संविधान ने तो उसे ये हक दिया ही है।  पता नही लोग कब ऐसा शुरु करेंगे?


 

 

 

सोमवार, 6 मई 2013

सट्टेबाजी - एक घातक वायरस

शायद यहाँ मुझे ये बताने की जरूरत नही है कि सट्टा , एक जुआ खेल है जिसके बारे हमारे बुजुर्ग लोग कहते आये है कि जो भी इस खेल की लत में आया है बरबाद हुए बिना वापस नहीं निकल पाया है। मैंने स्वयं बहुतो को जुआ की लत से बरबाद होते देखा है।
            मै पिछले कुछ वर्षो से IPL में सट्टे की कहानी तरह तरह के लोगो से सुनता आ रहा हूँ। ओर मुझे उन सब कहानीयों पर भरोशा भी है क्योंकि सभी कहानी विश्वास-पात्र लोगो के माध्यम से बतायी गयी थी। वैसे सट्टेबाज़ी  IPL के अलावा भी वर्ष भर चलने वाली सतत - गैर कानूनी प्रक्रिया है। लोगो से मालूम हुआ था की  IPLके मैच  में सट्टे में पैसा  लगाने के लिए कही जाने की भी आवश्यकता नही और  न अपना नाम पता आदि बताने की कोई जरूरत है। केवल एजेंट के माध्यम से रकम बता दो जो भी लगनी हो और आपका पैसा लग जाता है तथा  इस पूरी प्रक्रिया में सबसे ज्यादा ईमानदारी बरती जाती है जैसे की लगाया हुआ पैसा मैच का परिणाम आने के बाद वसूला या जीता हुआ पैसा लौटाया  जाता है। एक-एक पाई का हिसाब एजेंट के माध्यम से अगले दिन ही हो जाता है। फ़ोन से सारा खेल चलता है। पर आज इस सारे खेल का एक उदाहरण देखा और उसने मुझे ये सोचने को मजबूर कर दिया कि आखीर किस हद तक ये सट्टा रूपी घातक वायरस अपने पैर पूरे समाज में पसार चुका है कि  इसकी चपेट में आज पढ़े-लिखे नौजवान, व्यवसायी, अनपढ लोग, कमजोर मजदूर वर्ग, और आज देखा कि बच्चे भी आ चुके है।
           आज कल मै मेरठ में जहाँ रहता हूँ उसी गली में एक और मकान है जिसमे मेरा एक सहपाठी भी रहता है। इसी कारण उस मकान में अक्सर आना जाना लगा रहता है जिस के कारण उस मकान के सभी सदस्यों से  जान पहचान सी हो गयी है। उसी मकान में मकान स्वामी का एक लड़का है जिसकी यही कोई 15 साल की उम्र होगी तथा कक्षा दस का छात्र है। पिछले दिनो ही उसी मकान के कुछ और छात्रो ने मुझे बताया था कि " भैया , लगता है छोटू(मकान स्वामी का पुत्र ) सट्टेबाजी में पड गया है "  मुझे ये सुन के विश्वास नही हुआ और उन्हें डांट लगाई की क्यों किसी बच्चे को उड़ा रहे हो। पर उन छात्रो ने मुझे बताया कि भइया आज कल भुत लड़के आते है इसके पास , और आजकल इसने मोबाइल भी ले लिया है तथा जो भी फ़ोन आते है बाहर जा कर बात करता है जबकि पहले ऐसा नहीं था। इस बार मुझे कुछ शक सा हो गया क्योंकि कुछ दिन पहले ही छोटू ने, एक उसकी हमउम्र लड़के के साथ, रास्ते में ये पुछा था की "भइया आज हैदराबाद या पंजाब में से कौन जीतेगा ?" तब मैने साधारण यही सोचा था  की ऐसे  ही पूछ लिया होगा। पर अब मुझे शक  हो चूका था और मैंने सोचा  कि ये अभी बच्चा है इसे गलत-सही का ज्ञान नही है इसे समझाऊंगा मैं तथा हो सकेगा तो इसके हमने बापू से भी शिकायत करूंगा अगर समझाने से नही माना तो। अगले ही दिन मैने तथा मेरे सहपाठी ने उसे समझाया तथा उससे तमाम  गिरोह के बारे में पूछा  तो उसने(छोटू) बोला  की "भइया मै तो केवल एजेंट हूँ  तथा जीतने  वाले लोगो से जीत का 25% लेता हूँ  हरने वालो से कुछ नही लेता तथा  जो लोग पैसा लगवाना चाहते है उनकी जानकारी आगे पहुंचा देता हूँ "
       ख़ैर वो हमारे डांटने से वो कुछ  डर गया और बोला  पापा से मत कहना मै ये सब आज ही छोड़ दूँगा पर हमने उसके बापू के कण में बात दल दी। ये किस्सा तो यही  खत्म हो गया पर अभी थोड़ी देर पहले  जब बाहर दरवाज़े पर  खडा था तो एक और  गली का लड़का आकर  खडा  हो गया मेरे पास और  वही IPL का किस्सा शुरु कर  की  "भाई साहब  कौन जीतेगा ?" मैने भी तुरन्त पूछ लिया "सट्टा लगाता है तू भी ?" वो बोला हाँ भइया। तथा शान से सिर उठा के बोला कि रात 500 रूपये हार गया मै। कुछ ही देर में एजेंट भी आ लिए  हार  का पैसा वसूलने को उस लड़के से, जो की मेरे पास खडा था । वो ही, एजेंटो की 15 साल के करीब की उम्र और तीन छात्र थे वो एजेंट लडके, जिन्हें देखने से मालूम होता था कि कही से ट्यूशन पढ़ के आ रहे होंगे सोचा की पैसे भी उघाते चलें । पैसे लिये और चल दिये चलते-चलते आज के भाव भी बता गये की "आज तो भाव ही नही है लगाने का कोई फायदा भी नही है"।
         इस सारे वाकये ने मुझे ये सोचने को मजबूर कर दिया है कि किस कदर ये सट्टा हमारी नई पीढी को बरबाद करने पर आमदा है. इस सट्टे बाजी में इन   सब अबोध बच्चो को क्यों फंसाया जा रहा है ? आखिर इन के आने वाले भविष्य से क्यों खेल रहे है लोग? ये बच्चे जो की नादान है उन्हें ही हथियार बना लिया गया है इस धन्धे का ताकि किसी को शक  भी न हो और कम भी चल निकले।  ये छोटू जैसे बच्चे हमारे आप के छोटे भाई भी हो सकते है। और क्यों पुलिस या सरकार  इस सब को रोकने का उपाय नही कर  रही है ? जिम्मेदारी हमारी और आप की भी है की आसपास नज़र रखे ताकि कोई इस प्रलोभन की गिरफ्त में न फंसे।

        

रविवार, 5 मई 2013

अनुवाद

ये एक विशेष लेख है जो कि बिना किसी कारण के अचानक ही ज्यों का त्यों छापा गया है मेरे जी-मेल खाते से। हुआ कुछ यूँ कि अभी लेख लिखने को बैठा तो दिमाग में आया की पहले मेल देख  लेते है। मेल देखने बैठा तो एक नया मेल प्राप्त हुआ जो की मेरे एक पुराने मेल का जबाब था जो  एक पत्रिका के सम्पादक द्वारा मुझे भेजा गया था। दरअसल में वो संपादक मुझ से अपनी पत्रिका के लिए एक लेख लिखवाना चाहते है तो, ये मेल ,उन से उसी सिलसिले में बातचित का एक हिस्सा है।
         हाँ तो , जैसे ही मेल देखा तो तभी एक कोने में उसी पेज पर एक और विकल्प दिखाई पडा जिसमे लिखा था "मेल का हिन्दी में अनुवाद करे "। सचमुच ये देख कर बहुत अच्छा अहसास हुआ की चलो भई अपनी भाषा में मेल पढने में ओर भी अधिक आनंद की अनुभूति होगी। अतः इसी तमन्ना की आस में हमने अनुवाद वाले विकल्प पर क्लिक कर दिया  पर उसके पश्चात जो अनुवाद हो कर हमारे सामने  आया  तो पर आधा तो  हमारे समझ नही आया ओर आधा हमे हंसाने के काम आया। सचमुच अर्थ का अनर्थ करने वाला अनुवाद।
         आप भी अपनी नज़र में निकाल ले इस मेल को जो किसी मनोरंजन के बराबर नही तो कम भी नही ।

पहला मूल मेल-
    Hi Saurabh,
                    Thanks for your fast reply. We will be very glad for article about man in the middle attack, it will suits our issue very much. The word limit is about 4500 words, language of course english, deadline - till 20 May. Is this suitable to you?
                    Of course we have some offers for writing it, we can propose you: free issue of the magazine (in which the article will be published), free advertising, and an opportunity to reach 50 000 IT specialists. Also, if you decide to write more than once for us, you will be granted free subscription for the whole year.
                   I also attach some formatting rules for your convenience, I hope they can help you in writin. If you have any more questions, please ask I will be glad to receive you all needed informations.
      Looking forward for hearing from you.

दूसरा गूगल से अनुवादित मेल-

             अपना उपवास उत्तर के लिए धन्यवाद. हम मध्यम हमले में आदमी के बारे में लेख के लिए बहुत खुशी होगी, यह सूट बहुत ज्यादा हमारे मुद्दा होगा. जब तक 20 मई - शब्द सीमा के बारे में 4500 शब्दों, पाठ्यक्रम अंग्रेजी, समय सीमा की भाषा है. यह आप के लिए उपयुक्त है?
              बेशक हम के लिए कुछ प्रदान करता है   लेखन   यह, हम आपको प्रस्ताव कर सकते हैं: पत्रिका का मुफ्त मुद्दे (लेख प्रकाशित किया जाएगा जिसमें), मुफ्त विज्ञापन, और 50 000 आईटी विशेषज्ञों तक पहुँचने के लिए एक अवसर है. आप हमारे लिए एक से अधिक बार लिखने का फैसला करते हैं, तो आप पूरे वर्ष के लिए निःशुल्क सदस्यता दी जाएगी.
               मैं भी आपकी सुविधा के लिए कुछ स्वरूपण नियमों देते हैं, मुझे लगता है वे writin में आपकी मदद कर सकते हैं उम्मीद है. आप किसी भी अधिक प्रश्न हैं, तो मैं सभी आवश्यक जानकारियां आपको प्राप्त करने में खुशी होगी पूछना कृपया.

             तुम से सुनवाई के लिए आगे देख रहे हैं.

शुक्रवार, 26 अप्रैल 2013

पाँच साल और एक निष्कर्ष

"पाँच साल और एक निष्कर्ष" है न कुछ अजीब सा शीर्षक। पर है तो है नियमों के विपरीत इसका भी कोई कारण नहीं।
     सर्वप्रथम  ये ऐलान कर देना चाहता हूँ कि मैं अपने धर्म से बेहद प्यार करता हूँ। इसका मतलब ये कतई नही है कि मैं ओर धर्मों से नफरत करता हूँ जी  नहीं। मैं सभी धर्मो के लोगो को बराबर का दर्ज़ा देता हूँ और किसी भी धर्म  में खोट नही निकालता। सभी धर्मो के रीति रिवाजो की बराबर इज्जत करता हूँ।
     साल था 2009 हम पाँच दोस्त पहुँच गये जयपुर घुमने। दरअसल दो दोस्तो का वजीफा आया था सो पहुंच गये थे सभी लोग । जयपुर वास्तव में बहुत ही  नहीं बहुत ज्यादा खूबसूरत शहर है इसमे कोई शक नहीं। सच कहूँ तो वहाँ से वापसी आने का मन ही नही करता। ख़ैर मुददे पर आते है जयपुर के निकट ही है अजमेर शहर और वहाँ  है एक जाना माना प्रसिद्ध पर्यटन स्थल  ख़्वाजा मुईनुद्दीन चिश्ती दरगाह । इसे 'दरगाह अजमेर शरीफ़' भी कहा जाता है। हम सभी दोस्त घुमने गये थे तो वहाँ  भी गये। मन्नत मांगने वालो की भीड़ कहीं भी कम नही होती और जहाँ श्रद्धा जुडी हो वहाँ और भी ज्यादा होती है। वहाँ भी बहुत लोग होते है  सभी कुछ न कुछ पाने  के लिए ऊपर वाले की चौखट पर पहुंचते  है  कोई सुख चैन तलाश में, तो कोई दौलत, तो कोई बीमारी से निजात, तो कोई मन की शान्ति,तो कोई शोहरत के लिए अब तो लोग फिल्म चलवाने को भी जाते है वैसे । 
    हम भी गये थे तो फुल चढाने का विचार आया सो ले लिए फूल जितने के भी जेब ने मुनासिब समझा। ख़ैर मुख्या स्थल मजार पर  लोगो की दम घोटु भीड को चीरते हुए पहुँचे और फूल चढ़ा दिये। वहीं पर दो लोग थे जो बहुत  जोर - २ चिल्ला कर लोगो से गल्ले में दान डालने को बोल रहे थे वो दोनों लोगो को ज़ल्दी ज़ल्दी निकलने को कहते और उस से ज्यादा लोगो को गल्ले में दान डालने को कहते। जिसकी जितनी श्रद्धा और हैसियत वो उतना दे देता। पर उनके मांगने के लहजे से लगता की वो बिन लिये किसी को जाने नही देंगे।
     बस यही बात मेरे एक दोस्त को विचलित कर गयी और  वो वहाँ से बाहर  निकल के सहसा ही  बोल उठा की यार यहाँ के लोग लोगो से बलपूर्वक मांग रहे थे दान को पैसा। हमारे यहाँ कोई ऐसे नही मांगता मंदिरों में। जिसे दान देना है वो खुद ही दे देता है दान ज़बर जस्ती लेने की चीज़ नही है जिसे देना है वो दे देता है। मैं भी उसके शब्दों से उस वक्त  तक सहमत था जब तक की हम साल 2010 में हरिद्वार  कुम्भ में नही गये। वहाँ भी हम  पाँच दोस्त घुमने जा पहुँचे। घूमते हुए माता चंडी  के मंदिर भी गये जहाँ मेरे विचार कुछ बदल गये। मंदिर में अलग जगह पर पंडा लोग अपनी अपनी थाल सजाये बैठे थे और श्रद्धालुओ को आशीर्वाद देने के लिए 10 रूपये की मांग करते। एक मंदिर अनेक पंडे और सभी के अलग अलग थाल। आशीर्वाद के तोर पर वो श्रद्धालु की कमर पर जोर से हाथ की थपकी मरते थे एक थपकी के 10 रूपये और जो न दे उसे एक अपराधी की नज़र से देखते। इसका प्रत्यक्ष उदहारण भी मिला  हमे जब एक दोस्त ने बिना पैसा  दिए कमर झुका दी क्योंकि हम चार लोग पहले ही 10-10 रूपये दे चुके थे और उसने सोचा कि 4 के साथ एक थपकी तो मुफ्त मिलेगी ही पर वो गलत साबित हुआ पंडा ने थपकी मरने से मना ही नही किया बल्कि लड़ने को भी तैयार हो गया।
     बस उस ही दिन में समझ गया धर्म  के नाम पर ये ठग लोग, लोगो को  लूटते है और सीधे साधे लोग दान समझ कर इन्हें पैसा दे भी देते है न जाने कितना पैसा इन सभी धार्मिक स्थानों पर जमा होता है हर वर्ष। पर ये लोग न तो उसका हिसाब देते है न ही उस पैसे को धार्मिक स्थानों  के विकास पर खर्च करते है बस करते है तो उस पैसे का गबन। इस बात का प्रमाण इस बात से मिलता है की जब हम फिर से उसी धार्मिक स्थान पर जाते है तो वहाँ सब कुछ पहले जैसा ही मिलता है न कोई विकास न किसी सुविधा में बढ़ोत्तरी। फिर जाता कहाँ है इतना बड़ा दान का पैसा सीधी सी बात है गबन हो जाता है। और ये जो दान को जबर  जास्ती  उघाते  है लोगो से बार बार मांग के- ये भी तरीका अच्छा नही। दान वो होता है जिसे लोग दिल से ख़ुशी - 2 दें।  न की मरे मन से दे   क्योंकि लोग मांग रहे है उस से दान बल पूर्वक ।
  अभी कुछ दिनों पहले ही सम्पन्न हुए इलाहबाद कुम्भ में भी गया था मैं।  इस बार पाँच दोस्त नही गये बल्कि हम दो दोस्त ही जा पाये। इस बार एक मुस्लिम मित्र था वहाँ पर पुलिस में तो उसी के देख रेख में सारा कुम्भ घुमे। यहीं है प्रसिद्ध अक्षयवट जो यमुना के किनारे किले की चारदीवारी के अन्दर स्थित है। अक्षयवट के पास ही एक छोटा सा मंदिर बनाया गया है। जिसमें राम, लक्ष्मण व सीता की प्रतिमाएं स्थापित की गई है। इस मंदिर में भी गये और  मेरा वो मुस्लिम दोस्त भी साथ था मंदिर में। वहाँ पर भी दान मांगने वालो का भरपूर जमाव था। छोटे से मंदिर में हर मूर्ति के सामने खड़े पंडे मांग रहे थे जैसे बिना दान दिए जाने वालो के दर्शन भगवान स्वीकार ही न करते हो। और इस मांग को देख कर इस बार मेरा वो मुस्लिम दोस्त विचलित हो उठा (ठीक उसी प्रकार जेसे अजमेर में एक  हिन्दू दोस्त)  और बोला की भाई हमारे धर्म में कोई नही मांगता इतना जैसा तुम्हारे यहाँ मांगते है  हालाँकि मैंने उसे समझाने की नाकाम कोशिश भी की अनुभव के आधार पर। पर वो नही माना  शायद उसे भी मेरी तरह सभी कि एक सी हकीक़त मालूम हो जाये  एक दिन इसी की उम्मीद करता हूँ।
  
  

गुरुवार, 11 अप्रैल 2013

हैलो-हैलो आवाज आ रही है?

बात उस जमाने की है साहब, जब हम मुश्किल से तीसरी या चौथी जमात में पढ़ते होंगे तभी से शुरु हो गये  थे हमारे  और फोन के  सम्बन्ध.  वैसे इस दूरभाष यानी टेलिफोन को  हमारे चचा जान ऐलेक्जैंडर ग्रैहैम बेल जी  ने बहुत दिन पहले ह़ी दुनिया को दे दिया था। पर  हम जब गाँव में तीसरी में पढ़ते थे शहर जाना कभी होता नही था।  टेलिफोन का नाम सुन के ही खुश हो जाते थे जब पापा , शहर से आ के दादी को बताते की फोन पे मेरी बुआ जी यानी पापा की दीदी से उनकी बात हुई है और सब राज़ी खुशी है।बडा जोर से मन करता था की हम भी कभी फोन पे बात करें, सोचते थे कि न जाने कैसे बात करनी पड़ती होगी क्या कहना पड़ता होगा ,एवंम फोन सीधा बुआ जी के यहाँ ही कैसे पहुंचता है? और भी बहुत  कुछ, पर इच्छाओ का दमन करके सोचते की जब बड़े हो जायेंगे तब इस मरे फोन को जरुर खरीदेंगे। खैर कक्षा 5 में  हमारा दाखिला पास के शहर में करा दिया गया ओर वहाँ जा के हमारे और फोन में बीच कुछ निकटता आई पर इतनी के पाठशाला(स्कूल) के निकट की STD के  सामने से निकलते बड़ते देख लेते थे कि उधर की क्या होता है? कभी कभार STD पे जा पड़ताल भी करते की कम कैसे करता है फिर एक दिन सोचा की कही  बात की जाये तो सभी दोस्तों की राजी किया सभी से 1-1 रुपया मिला के 5 रुपया इक्कट्ठा करके जा पहुंचे STD पेसारे  लोग और संदीप को (जिसे अपनी की जानकारी का कोई फोन नम्बर याद था) उसे बात करवाई।जैसे ही बात खत्म हुई हम भी फोन से थोडा पीछे हटे कि पूछे क्या बात हुई और कैसे हुई  पर वो संदीप मानो सातवे  आसमान पे था बताए ही ना, खूब पीछे पीछे दौड़ाया नालायक ने पर नही बताई। यकीन मानिये मन की मन में रह गयी पर क्या करते। तभी सभी ने कहा कोई अपने घर नही बतायेगा की हमने कही  फोन किया है मानो कोई अपराध किया हो।
             सोचा अगली बार हम खुद ही  बात करेंगे बुआ जी से पर ये डर की  बुआ जी पिता श्री को बता देंगी फिर सोचते  बेटा  डंडा बहुत बजेगा और जाने देते । खैर एक दो साल कट गये और तब तक भारत सरकार की योजना के तहत ग्राम प्रधान के यहाँ फोन लग चुका था उसके लिए एक ऊँचा सा टावर लगा था सौर उर्जा से वो फोन चलता था पर वो भी हमे को फायदा न दे सका क्योंकि प्रधान का नौकर जिसका भी फोन आता था उस  के घर जा के बता आता था की फला  जगह से  फोन आया था और ये कहने को बोला है। तभी शहर से गांव की ओर को फोन की लाइन खुदनी शुरु गयी थी तब हम साइकिल ले चुके थे और स्कूल में रोज़ 8 किलो मीटर  साइकिल से ही जाते थे। रोज़ आते-जाते खुदाई देखते घंटो तक और मजदूरों से नादानी से पूछते चाचा फोन कब तक लगेंगे वो बेचारे कह देते "हमे का मालूम बेटा"। रोज़ नये से पूछते की शायद इसे मालूम हो पर जबाब एक ही आता और हम उदास हो के साइकिल में पेंडल मरते घर आ जाते. तब तक मोबाइल का नाम सुनना भी शुरु हो चुका  था  पर देखा नही था. लोग बताते कि उसमे को तार नही होता है जेब में ही जाता है सोचते की जब हमरी जेब में होगा ऐसा कोई यन्त्र तो मानो हमारी हैसियत् में चार चाँद लग जायेंगे। फोन लाइन पड  चुकी थी  और पापा ने आवेदन भी कर दिया था पर हमे मालूम नही था उस वक़्त मोबाइल हमारे दिमाग पे सवार था क्योंकि जब पहली बार हमारे  ही गांव के महेन्द्र यादव जी विधायक बने तो वो हाथ में ले के आये थे कुछ, हमने किसी से पूछा  वो क्या है जबाब मिला मोबाइल है । समझिये हमने अपने जीवन में किसी देव के साक्षात दर्शन कर लिए हो, बहुत  ख़ुशी हुई "ये जरुर लेना है" वो बड़ा सा मोबाइल ऊपर से उसकी खोपड़ी से सिग्नल पकड़ने के लिए एंटेना भी निकलता था वाह  क्या चीज़ थी। रात में सो भी ना सके।
       तभी महेन्द्र जी के भतीजे बलराज भैया ने भी मोबाइल ले लिया और वो थे  नेता जी के  निजी सचीव और भतीजे , तो ठाट बाट थे ही  चौराहे पे खड़े हो के जोर जोर से फोन पे बात करे, वो भी धौंस के साथ, कभी कभी पास वाले दो मंजिल मकान की छत पे भी आ जाते और चिल्लाते "हेल्लो हेल्लो आवाज़ आ रही है" में बलराज बोल रहा हूं ! खैर दिल को समझा लेते की बड़े हो जाये तब लेंगे  एक हम भी।
             वो दिन भी आ गया की जब BSNL वाले फोन लगाने गांव में आ गये और गड्ढा खोद के खम्बा गाड  रहे थे मैने मोका देखा कोई नही है तो कान में कह दिया फोन वालो से   भइया  पहले उस घर में लगा देना. खैर लग गया फोन भी सन 2000 की बात है हम 8 वी में थे तब अब गांव में चुनिंदा फोन थे। अब लोग हमारे यहाँ  आते फोन करवाने को हम भी शुरु में शौक - 2  में करवा देते पर शौक  अगले महीने  ही उड़ गया जब बिल आया हिला देने वाला। अब गांव में मना भी नही कर सकते थे किसी को , तो  तय हुआ की फोन पे ताला डलेगा . एक नम्बर लॉक आता था जो फोन के नम्बरों के ऊपर लग जाता था ताले  की तरह। अब पापा को जब कही बात करनी होती तो ताला खोल लेते और फिर लगा देते चाबी छुपा देते उन्हें मालूम था मै  भी बहुत  बिल बैठा रहा हूं इधर उधर वैसे ही नम्बर मिला मिला के।  मेरे भी फोन बंद और बाहर  वालो का भी। उस वक़्त जब फोन लगा ही था घर में  हम बच्चो की उसे के उठाने के लिए भी लड़ाई हो जाती थी की कौन  उठायेगा सभी को बहुत शौक   था इसी लिए एक दो बात पिटाई भी हुई।और आज उठाने  उठाने  को हम  बहुत  बड़ा कम समझते है  बज़ रहा है बजने दो।
          तभी गांव के ही एक पप्पू भइया  ने गांव में STD खोल ली और लोग वहाँ जाने लगे। वो लोगो से फोन सुनने के भी पैसे लेते थे  बहुत लोगो ने  STD का नम्बर अपने रिश्तदारो को दे रखा था  अब अगर किसी का फोन आता तो पप्पू भइया माइक में आवाज़ लगा देते लाउड स्पिकर से कि  फला का फलाँ जगह से फोन है और वो आ जाता सुन के चला जाता था सुनने का अलग चार्ज था । २ रुपया आवाज़ लगाने का भी लेते थे। 
           अब मोबाइल का ज़माना  आ गया था  तथा लोगो  के हाथ में मोबाइल आने शुरु हो गये थे वो रिलायंस वाले सहवाग की माँ वाले प्रचार जैसे मोबाइल का क्रेज़ था । वक़्त था सन 2004 के आस पास का।  लोग हाथ में छोटा सा खिलौना ले के चलते और खली वक़्त में उसकी वो पोलिफोनिक रिंगटोन सुनते और लोगो को सुना के होव्वा बनाते किसी VIP की तरह  । धूम मचा ले -2  की रिंग टोन  ने तो अपनी अलग ही पहचान बनाई। मन करता की कब होगा अपने पास यह । अब टेलिफोन से मोह भंग हो चुका था. और जब लोग अलग अलग सुविधाए बताते मोबाइल की तो  मन ओर  भी ललचा  जाता था कोई वाइब्रेशन के बारे में  बताता  तो कोई फोटो वाला मोबाइल , कोई गाने वाला , कोई कैमरा वाला। आज भले ही आँख के  इशारे पे मोबाइल नाचता हो पर उस वक़्त  वो भी कम नही था बल्कि ज्यादा ही था आज के हिसाब से।
          2006 में जब B.TECH में दाखिला लिया फोन भी मिला जो की मेरे बहन ने अपना वाला  पुराना दिया था  । मानो भगवान मिल गये थे उस वक़्त 2 रूपये की कॉल दर थी फिर सस्ती हुई, फिर रात भर बात के ऑफर आये कुछ खाश लोगो के लिए ओर  फोन अपने पैर फैलता गया। आज उधर उधर देख सकने वाली भी भी  फोन में है कहते है  3G उसे.
         आज हाल ये है की मै फोन साथ रखना किसी आफत से कम  नही समझता बेवजह परेशान करने की मशीन है। और मेरे गांव में बच्चे बच्चे के हाथ में मोबाइल है।चाइना निर्मित मोबाइल धुआं उठा रहे है मजदूर भाई लोगो के हाथ में तेज़ आवाज़ में गाने वाह  क्या बात है मोबाइल से । भारत आगे बढ़ रहा है कोई संदेह नही। अब तो मेरे गांव के बच्चे भी फेसबुक इस्तेमाल कर  रहे है धडल्ले  से  चैट भी करते है जबकि वो गांव में ही रहते है पर जमाने के साथ हैं। पर वो पहले जैसी उत्सुकता कहाँ है कुछ पाने की उसमे अपना ही मज़ा था। अब तो माँ बाप सब कुछ पहले से ही दिला  दे रहें है पर वो पहले दिन गज़ब थे 
           शायद आप लोगो की भी यही कुछ दिलचस्प कहानी हो या ब्लॉग पसंद आये   तो कमेंट करे।  स्वागत है 

रविवार, 7 अप्रैल 2013

ताकि कोई मलाल न रहे

इस जीवन से बहुत कम लोग संतुष्ट होते है इसमें कोई दो राय नही। और बिना किसी उचित प्राप्ति या सफलता के मिले संतुष्ट होना भी इंसाफ नही. बहुत लोगो का मानना है कि संतुष्ट होना ही पतन का कारण है। संतोष को ही संतुष्टि  कहा  जाता है मै अपने इस अल्प जीवन में बहुत  कम संतुष्ट लोगो को जनता हूँ, लगभग एक ऊँगली पर गिने जा सकते है, जो अपने जीवन से पूरी तरह संतुष्ट हो। कोई किसी भी पेशे या रोजगार में क्यों ना हो सब कहते है की वो उस से पुर्णतया संतुष्ट नहीं। आखिर इसका कारण  क्या है की मनुष्य उखड़ा उखड़ा सा रहता है अपने जीवन से, कभी भी हाल पूछो? तो बहुलता में जबाब आता है " कट रही है बस ". इसका सबसे बड़ा कारण है हमारा मनुष्य होना। हमारा दीमाग बहुत  ही चंचल है। इंसान वो सभी सुख सुविधाए  तथा ऊँचाई पाना चाहता है जिसका उसने कभी ख्वाब देखा होता है परन्तु ख्वाब हकीकत तभी बनते है जब उनके लिए प्रयास किया जाये ईमानदारी और लगन के साथ। अक्सर हर इन्सान बड़े ख्वाब देखता ही है जो की देखने भी चाहिये। पर उन सभी को पूरा करने  के लिए भी एक समय निर्धारित होता है की  वो फला काम किसी  विशेष समय अन्तराल में ही पूरा किया जा सकता है  जैसे की उदहारण के लिये अगर किसी को सेना में अफसर  है तो 28  साल की उम्र तक ही बन सकता है ठीक इसी प्रकार हर काम को करने एक नियत वक़्त या समय अन्तराल  होता है चाहे वो कोई लक्ष्य  हो या किसी ओर मंजिल को पाना हो। पर जब वक़्त निकल जाता है तब शुरु होता है असंतुष्टि बुरा दोर जो जीवन  को निराशा में तब्दील कर देता है और इन्सान को मालूम भी नही चलता की वो निराशा के गहरे खतरनाक गर्त में पहुंच चुका है।
     बहुत  से मामलों  में देखने में आता है की मनुष्य के पास अपने ख्वाबो को सँजोने के लिए वक़्त भी है पर वो ज्यादातर वक्त कुछ करता भी नही ख्वाबो को पूरा करने के लिये ये स्थिति और भी ज्यादा घातक  हो सकती है क्योंकि उसके पास वक़्त भी है पर वो उसका सदुपयोग  नही कर पा रहा है और आगे एक वक़्त एसा  भी आएगा की जब उसके पास वक़्त नही होगा और उसे होगा केवल पछतावा। यही  है "कट रही है बस" जेसा वाक्य होंठो पर आने का कारण अगर वक़्त रहते कोई भी मेहनत कर लेता  तो वाक्य ये होता है की " जिन्दगी जी रहे है " और ये एक सकारात्मत वाक्य है इसमें  संतुष्टि का भाव साफ झलकता है  और जब मन माफिक कुछ न हो तो असंतोष पैदा होता ही है स्वभाविक रूप  से। और वही है  असंतुष्टि, जिससे जीवन का रस खत्म सा हो जाता है और हम जीवन से निराश हो जाते है इसके अनेक नुकसान तरह तरह से हमारे सामने आते है।
इन्सान जीवन यापन के लिए मजबूरीवश किसी और कम में लग जाता है  और ख़ुशी का मुखोटा पहनने  की कोशिश करता है पर जब दिल खुश न हो सब कोशिशे बेकार जाती है. और जीवन में शेष रह जाता है मलाल और पछतावा। 
       और सबसे ज्यादा तकलीफ तभी होती है जब दिल कहता है कि "यार उस वक़्त थोडा मेहनत/प्रयास  कर लिया होता तो तस्वीर कुछ ओर  होती आज " वक्त की खुद  को नही दोहराता जो गया सो  गया। 
          इसी लिए जीवन जिस कार्य के लिए मन करे या जिस ऊंचाई को पाना हो,उस कार्य को करने के लिए समय रहते जुट  जाना चाहिये और जब तक मोका मिले प्रयास करते रहना चहिये परिणाम चाहे कुछ हो। आखिर ये मलाल तो न रहेगा भविष्य में की हमने पाने के लिए कुछ किया नही। बल्कि ये कहेंगे हमने किया पर हमारे मुक़्क़्द्द्र में था नही सो हमे मिला नही । असल में सब करना चाहते तो है पर जब  अहसास होता है की कुछ करना है तब तो हमे में उत्साह सारी  दुनिया का आ जाता है मानो। पर लगातार बरक़रार  नही रह पाता। एक दो दिन बाद  उत्साह काफूर हो जाता है और क्योंकि हम ओर  दुनिया दारी  के झमेलों में फंस जाते है और असली काम को भुला देते है और इसका इलाज है द्रढ़ निश्चय की जो ठान ली है वो कर गुजरना है अगर ये भाव एक बार  आ गये तो विश्वास मानिये आप को कोई  रोक नही सकता।
           डॉ परवीन जी इसी विषय पर कहते है कि अभी तुम जवान हो और जवान लोग चला नही करते बल्कि  उड़ा करते है चलते तो वो लोग है जो उड़ नही सकते दोड़ नही सकते। इस लिए जो ठान ली है वो कर गुजरो  ताकि जीवन में कभी किसी चीज़ का मलाल न रहे की .........क्योंकि  जिंदगी न मिलेगी दोबारा 

शनिवार, 30 मार्च 2013

शराबी यारों के ...किस्से

अक्सर हर इन्सान के कुछ ऐसे यार होते ही है कि जिनसे वो बचना चाहता है।  मेरे भी कुछ ऐसे  ही यार है जिनसे मै बचता फिरता हूँ। वेसे मेरा और उनका मिलना केवल होली के शुभ  अवसर पर  ही होता है वो भी कुछ 10 मिनट के लिये पर यकीन मानिये के वो कुछ पल मेरे लिये एक साल से कम नही समझो के घडी ही  रुक  जाती है । अभी होली पर गाँव में ही घर पर था  बस आ गये श्रीमान लोग जेसा की मुझे पहले से ही अंदेशा था की जमीन इधर से उधर हो जाये पर वो नलायक लोग जरुर आयेंगे जबकि में चाहता नही हूँ की  वो आयें। पर होता वही हो जो आप नही चाहते। 
         करीब दोपहर के 2 बजे के करीब 4 -5 लोग अपनी अपनी मोटर साइकिल पे सवार आ धमके बवाली लोग, दारू के नशे में धुत्त। बस आते ही दरवाज़े से ही विशेष आवाज़ से सम्बोधन शुरू कर देते है। बस मेरे लिए आफत वही से शुरु हो जाती है। सोचता हूँ की घर बुलाऊ पर गेट से ही  आफत को भगाने  के मकसद से ही  खुद गेट पे आ जाता हूँ। 
        बस वही गले सले मिलते है और गुलाल सुलाल लगते ही दारू की मांग की जाती है धीरे से कहता हूँ की भाई गांव में हूँ, घर हूँ समझो पर उन्हें होश हो तब ना समझें साहब लोग।  गेट पर ही एक दुसरे को तेज़ तेज़ अजीब तरह से एक दुसरे की माँ बहन के साथ अजीब अजीब रिश्ते जोड़ते हुए शोर मचाना  सुरु कर देते  है। और गांव के माहोल में ये सब आम नही की कोई गाली गलोच प्यार से दें वो भी दोस्त लोग तुम्हारे घर के  सामने। इस तरह का  आचरण हमारी इज्जत के लिए  बहुत  ही घातक है   गांव के लोग इसी मोके की फिराक में रहते  है की किसी  भी तरह से बदनामी फेलाने का मोका मिल जाये किसी के  खिलाफ  खाश कर मेरे जेसे छवी  साफ इन्सान के लिए तो ज़रूर। की  भई फलां  के लडके के ऐसे  दोस्त है की जो खुल्ले आम  गली गलोच करते है  तो ये भी ऐसा  हो होगा वेसे बना फिरता है सरीफ । 
         खेर  बात यहीं खत्म  हो तो ठीक पर  एक साहब पूछ  बेठे की तेरी M.TECH कितनी बची  है इससे पहले में जबाब देता एक श्रीमान ने  मेरे को जॉब का ऑफर हाथो हाथ दे दिया की M.TECH के बाद में तेरी 40000 प्रति माह  की नौकरी तो कम से कम में लगवा दूंगा तभी एक ने अपनी शान में गुस्ताखी समझी और झूमते हुए बोला  की भाई  की 50000  की में लगवा दूंगा।इतना सुनते ही अपने दीवार के पीछे खड़े मेरे पडोसी के होश उड़ गये  और भाग गया में भी अब तक बहुत  परेशान  हो चूका था और शाम को मेने उसे अपने बच्चो को हडकाते हुए सुना की सालो कुछ पड़ोसियों   से कुछ सीखो । तभी साहब लोग बिना बुलाये अन्दर आ जाते है
           और हद तब हो गयी जब मेरे बाबा से दारू मांग बैठे। खेर बाबा ने थोड़ो थोड़ी दे दी। बस जेसे ही ग्लास उठाया एक दोस्त ने पूछ  लिया की सौरभ तू भी ले न मेने वही अपनी नज़र से, गुस्से और शर्म से मना कर  दिया की तू जानता   है में नही पीता  तभी एक महासय ने कहा  की " छोड़ दी है क्या अब,  वेसे कब से ? " अब इस बात का में क्या जबाब दूँ। शर्म से पानी पानी बाप बाबा के सामने वो भी उन दोनों के सामने उन  की नज़र ऐसे देख रही थी की जेसे में पहले वास्ताव में ही दारू बाज़ रहा हूँ। 
          अब आप लोग ही बताओ की इसे यारो से कोन  मिलना चाहेगा भला वो भी इतनी बुरी हालत में उन्हें होश भी न हो । खेर सुकर है ऊपर वाले का की  होली से होली ही मुलाक़ात होती है वरना में तो गांव छोड़ देना पडता , अब स्कूल के साथी है भगा भी नही सकता।
 अब आप लोग बताओ की इन यारो का क्या किया जाये।

गुरुवार, 21 मार्च 2013

एक शाम सायरी के नाम

अभी गर्मी की सुरुआत भी नही हुई है की बिजली ने  अपना असली रूप दिखाना सुरु कर दिया है  अभी  जब मच्छरों से कुश्ती कर रहा हूँ   बिजली के  इंतजार में, तो दीमाग में आया   की  भई  चलो कुछ लिख दिया जाये। .
               अक्सर मुझे , जहाँ कही भी सायरी सुनने या पढने को  मिल जाती है वही पर  उसे अपने दिल में संजोने की भरपूर कोशिश करता हूं पर पर मेरी कमज़ोर याददास्त हर बार मुझे धता बता  के मेरे सब मनसूबा पे पानी  देती है  पर फिर भी कुछ पंक्तियाँ मैं  याद करने में कामयाब रहा हूँ  जो की मैने अपने कुछ जानने वालो से सुनी हैं या प्राप्त की हैं  sms इत्यादि से।  और मैं इन्हें  तरह - 2 के लोगो के सामने पेश करके अपने आप को एक मंजे  हुए सायर की तरह पेश करने का नाकामयाब ढोंग करता रहता हूँ आज कुछ पंक्तिया आप लोगो के सामने पेश है गोर फरमैयेगा ..............


मै तो शेर  सुना कर अकेला खडा रहा।
और सभी अपने - 2  चाहने वालो में खो  गये।
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रोना न कभी माँ के सामने 'सौरभ'.
वो कहते है ना की जहाँ बुनियाद हो वहाँ ज्यादा नमी अच्छी नही।
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तमाम उम्र  तेरा इंतज़ार  कर लेंगे
मगर ये रन्ज रहेगा की जिन्दगी कम है 
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भूलें हैं रफ्ता रफ्ता तुम्हे मुददतो में हम।
किस्तों में ख़ुदकुशी करने मज़ा हम से पूछिये 
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कोशिश तो की  थी बहुत मैने  पर मुलाकात  न हुई।
अफसोस है की उनसे कभी बात न हुई। 
दुनिया  तो  खूब सो रही है हो के बेख़बर। 
मेरी मगर बहुत दिनो से कोई रात न हुई। 
चुप हो गये अश्को को मेरे देख कर वो लोग।
जो कह रहे थे की इस बरस कोई बरसात न हुई। 
लिखी है कितनी ग़ज़लें   मेने तेरी  याद में। 
मगर अफसोस की तुझसे कभी बात न हुई।
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वो इस गुमान में रहते है की हम उनको, उन से मांगे। 
और हम इस गुरुर  में रहते है की हम अपनी ही चीज क्यों मांगे।
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मिली है मेरे ही नाम से तेरे नाम को सोहरत.
वरना मेरी कहानी   से पहले  तुझे जानता  ही कोन  था.
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समझते हैं हर  बात का वो उल्टा मतलब।
इस बार मिलेंगे तो कह देंगे हाल बहुत  अच्छा है.
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एक समुन्दर है जिसके पार जाना है और एक कतरा  है जो हम से  संभाला नही जाता।
एक उम्र है जो बितानी है उनके बिन और एक लम्हा है जो हम से काटा  नही जाता।

सौजन्य- अरविन्द जी , मनोज जी , सुनील , मुन्नवर  जी 


बुधवार, 20 मार्च 2013

महात्मा गांधी जी की नजर में..... नारी

आज कल के  समय में जब तमाम समाज मे अनेको माध्यमों से महिलाओ के बारे मे नयी सोच बनाने ओर बराबरी में ला  के खडा करने की अपील की जा रही है उसी श्रंखला में पेश है महात्मा गांधी जी के विचार  ..... 
समाज में स्त्रियों की स्थिति और भूमिका    
                      आदमी जितनी बुराइयों के लिए जिम्मेदार है उनमें सबसे ज्यादा घटिया, बीभत्स और पाशविक बुराई उसके द्वारा मानवता के अर्धांग अर्थात नारी जाति का दुरुपयोग है। वह अबला नहीं, नारी है। नारी जाति निश्चित रूप से पुरुष जाति की अपेक्षा अधिक उदात्त है; आज भी नारी त्याग, मूक दुख-सहन, विनम्रता, आस्था और ज्ञान की प्रतिमूर्ति है।  (यंग, 15-9-1921, पृ. 292)            
                         स्त्री को चाहिए कि वह स्वयं को पुरुष के भोग की वस्तु मानना बंद कर दे। इसका इलाज पुरुष की अपेक्षा स्वयं स्त्री के हाथों में ज्यादा है। उसे पुरुष की खातिर, जिसमें पति भी शामिल है, सजने से इंकार कर देना चाहिए। तभी वह पुरुष के साथ बराबर की साझीदार बन सकेगी। मैं इसकी कल्पना नहीं कर सकता कि सीता ने राम को अपने रूप-सौंदर्य से रिझाने पर एक क्षण भी नष्ट किया होगा। ( यंग, 21-7-1921, पृ. 229)     
                        यदि मैंने स्त्री के रूप में जन्म लिया होता तो मैं पुरुष के इस दावे के विरुद्ध विद्रोह कर देता कि स्त्री उसके मनबहलाव के लिए ही पैदा हुई है। स्त्री के हृदय में स्थान पाने के लिए मुझे मानसिक रूप से स्त्री बन जाना पडा है। मैं तब तक अपनी पत्नी के हृदय में स्थान नहीं पा सका जब तक कि मैंने उसके प्रति अपने पहले के व्यवहार को बिलकुल बदल डालने का निश्चय नहीं कर लिया। इसके लिए मैंने उसके पति की हैसियत से प्राप्त सभी तथाकथित अधिकारों को छोड दिया और ये अधिकार उसी को लौटा दिए। आप देखेंगे कि आज वह वैसा ही सादा जीवन जीती है जैसा कि मैं।
                       वह न कोई आभूषण धारण करती है, न अलंकार। मैं चाहता हूं कि आप भी उसी की तरह हो जाओ। अपनी मौज-मस्तियों की गुलामी और पुरुष की गुलामी छोडो। अपना शृंगार करना छोडो, इत्र और लवैंडरों का त्याग कर दो; सच्ची सुगंध वह है जो तुम्हारे हृदय से आती है, यह पुरुष को ही नहीं अपितु पूरी मानवता को मोहित करने वाली है। यह तुम्हारा जन्मसिद्ध अधिकार है। पुरुष स्त्री से उत्पन्न होता है, उसकी मांस-मज्जा से बना है। अपनी प्रतिष्ठा पुनः प्राप्त करो और अपना संदेश फिर सुनाओ।(यंग, 8-12-1927, पृ. 406)    
अबला नहीं-                                                                                
नारी को अबला कहना उसकी निंदा करना है; यह पुरुष का नारी के प्रति अन्याय है। यदि शक्ति का अर्थ पाशविक शक्ति है तो सचमुच पुरुष की तुलना में स्त्री में पाशविकता कम है। और यदि शक्ति का अर्थ नैतिक शक्ति है तो स्त्री निश्चित रूप से पुरुष की अपेक्षा कहीं अधिक श्रेष्ठ है। क्या उसमें पुरुष की अपेक्षा अधिक अंतःप्रज्ञा, अधिक आत्मत्याग, अधिक सहिष्णुता और अधिक साहस नहीं है ? उसके बिना पुरुष का कोई अस्तित्व नहीं है। यदि अहिंसा मानव जाति का नियम है तो भविष्य नारी जाति के हाथ में है... हृदय को आकर्षित करने का गुण स्त्री से ज्यादा और किसमें हो सकता है? (यंग, 10-4-1930, पृ. 121)
                                                                           
               यदि पुरुष ने अपने अविवेकपूर्ण स्वार्थ के वशीभूत होकर स्त्री की आत्मा को इस तरह कुचला न होता और स्त्री 'आनंदोपभोग' का शिकार न बन गई होती तो उसने संसार को अपनी अंतर्हितअनंत शक्ति का परिचय दे दिया होता। जब स्त्री को पुरुष के बराबर अवसर प्राप्त हो जाएंगे और वह परस्पर सहयोग और संबंध की शक्तियों का पूरा-पूरा विकास कर लेगी तो संसार स्त्री-शक्ति का उसकी संपूर्ण विलक्षणता और गौरव के साथ परिचय पा सकेगा। (यंग, 7-5-1931, पृ. 96)
            मेरा मानना है कि स्त्री आत्मत्याग की मूर्ति है, लेकिन दुर्भाग्य से आज वह यह नहीं समझ पा रही कि वह पुरुष से कितनी श्रेष्ठ है। जैसा कि टाल्सटॉय ने कहा है, वे पुरुष के सम्मोहक प्रभाव से आक्रांत है। यदि वे अहिंसा की शक्ति पहचान लें तो वे अपने को अबला कहे जाने के लिए हरगिज राजी नहीं होंगी। ( यंग, 14-1-1932, पृ.19)                                                                                                
स्थान-व्यतिक्रम
स्त्री पुरुष की सहचरी है, उसकी मानसिक क्षमताएं पुरुष के बराबर हैं। पुरुष के छोटे-से-छोटे कार्यकलाप में भाग लेने का उसे अधिकार है और जितनी स्वाधीनता और आजादी का हकदार पुरुष है, उतनी ही हकदार स्त्री भी है।
स्त्री को कार्यकलाप के अपने क्षेत्र में सर्वोच्च स्थान पाने का वैसा ही हक है जैसा कि पुरुष को अपने क्षेत्र में है। स्वभावतया यही स्थिति होनी चाहिए; ऐसा नहीं है कि स्त्री के पढ-लिखे जाने पर ही वह इसकी हकदार बनेगी।
गलत परंपरा के जोर पर ही मूर्ख और निकम्मे लोग भी स्त्री के ऊपर श्रेष्ठ बनकर मजे लूट रहे हैं, जब कि वे इस योग्य हैं ही नहीं और उन्हें यह बेहतरी हासिल नहीं होनी चाहिए। स्त्रियों की इस दशा के कारण ही हमारे बहुत-से आंदोलन अधर में लटके रह जाते हैं।(स्पीरा, पृ. 4)                                                                                          
               स्त्री ने अनजाने में अनेक विचक्षण उपायों से पुरुष को विविध प्रकार से फंसाया हुआ है और इसी प्रकार, पुरुष ने भी स्त्री को अपने ऊपर वर्चस्व प्राप्त न करने देने के लिए अनजाने में उतना ही किंतु व्यर्थ संघर्ष किया है। परिणामतः एक गतिरोध की स्थिति उत्पन्न हो गई है। इस दृष्टि से देखें तो यह एक गंभीर समस्या है जिसका समाधान भारत माता की प्रबुद्ध बेटियों को करना है। उन्हें पश्चिम के तरीकों का अनुकरण नहीं करना है, जो शायद वहां के वातावरण के अनुकूल है। उन्हें भारत की प्रकृति और यहां के वातावरण को देखकर अपने तरीके लागू करने होंगे। उनके हाथ मजबूत, नियंत्रणशील, शुचिकारी और संतुलित होने चाहिए जो हमारी संस्कृति के उत्तम तत्वों को तो बचा रखें और जो कुछ निकृष्ट तथा अपकर्षकारी है, उसे बेहिचक निकाल फेंकें। यह काम सीताओं, द्रौपदियों, सावित्रियों और दमयंतियों का है, मुस्तंडियों और नखरेबाज स्त्रियों का नहीं।                                                                                                                                                                                                        
                पुरुष ने स्त्री को अपनी कठपुतली समझ लिया है। स्त्री को भी इसका अभ्यास हो गया है और अंततः उसे यह भूमिका सरल और मजेदार लगने लगी है, क्योंकि जब पतन के गर्त में गिरने वाला व्यक्ति किसी दूसरे को भी अपने साथ खपच लेता है तो गिरने की क्रिया सरल लगने लगती है।  (हरि, 25-1-1936, पृ. 396)                  मेरा दृढ़ मत है कि इस देश की सही शिक्षा यह होगी कि स्त्री को अपने पति से भी 'न' कहने की कला सिखाई जाए और उसे यह बताया जाए कि अपने पति की कठपुतली या उसके हाथों में गुडिया बनकर रहना उसके कर्तव्य का अंग नहीं है। उसके अपने अधिकार हैं और अपने कर्तव्य हैं। (हरि, 2-5-1936, पृ. 93)     सही शिक्षा
मैं स्त्री की उचित शिक्षा में विश्वास करता हूं। लेकिन मेरा पक्का विश्वास है कि पुरुष की नकल करके या उसके साथ होड लगाकर वह दुनिया में अपना योगदान नहीं कर सकेगी। वह होड लगा सकती है, पर पुरुष की नकल करके वह उन ऊंचाइयों को नहीं छू सकती जिनका सामर्थ्य उसके अंदर है। उसे पुरुष का पूरक बनना है। (  हरि, 27-2-1937, पृ. 19)                                                                                       
             मुझे भय है कि आधुनिक लडकी को आधे दर्जन छैलाओं की प्रेमिका बनना अच्छा लगता है। उसे जोखिम पसंद है... वह जिस तरह के वस्त्र धारण करती है वे उसे हवा, पानी और धूप से बचाने के लिए नहीं बल्कि लोगों का ध्यान अपनी ओर आकर्षित करने के लिए होते हैं। वह रंग-रोगन लगाकर और असाधारण दिखाई देने का प्रयास करके प्रकृतिदत्त सुंदरता को बढाने का उपक्रम करती है। अहिंसा का मार्ग ऐसी लडकियों के लिए नहीं है।(  हरि, 31-12-1938, पृ. 409)                                                                                               


(स्त्रोत : महात्मा गांधी के विचार)    

शनिवार, 16 मार्च 2013

बस किसान के मजे है।।।

बात उस समय की है जब में स्नातक का छात्र था। मेरा एक मित्र सुनील भी पास में ही एक बेहतरीन सी आवासीय कॉलोनी में रहता था। उस के कमरे पर  मेरा  जाना लगभग प्रति दिन का ही था। चूंकि हम लोग किराये पर  रहते थे तो खाने का प्रबन्ध बाहर से ही करना पडता था।  उसी आवासीय कॉलोनी जहाँ सुनील रहता था, में एक लोग  के यहाँ से वो लोग टिफ़िन दुवारा  खाना लाते  तथा कमरे पर ला के खाते थे। 
                     एक दिन  सुनील बोला की खाने लेने चलते है। मैंने तो मना कर  दिया कि  तुम ही जाओ। तब सुनील ही खाना लेने गया। वो कुछ देर बाद  वापस आया तो थोडा सा चिंतन की पीड़ादायी मुद्रा में था। मेरे पूछने बोला की यार क्या बताउं ?  अभी जब खाना ले के  के वहाँ  से निकला  तो दो शहरी महाशय रात के  खाने के बाद टहलने निकले थे कॉलोनी के पार्क के  चारों तरफ वाली सडक पर और में उनके पीछे चल रहा था । वो दोनों ही अपने जीवन और रोजमर्रा की परेशानियो पर टहलते हुए चर्चा कर  रहे थे। शायद अधिकतर नौकरी पेशे वालों की तरह वो भी अपने पेशे  से संतुष्ठ नही थे तभी उनमे से एक अपने तनाव के चरम पर  पहुंचकर  सहसा ही  बोल उठा "साला बस किसान के  मजे है एक बार बीज बिखेर आओ खेत में और कुछ दिन बाद जा के  काट  लो फसल और साला मोटे पैसे में बेच दो कुछ करना ही नही है कोई टेंसन ही नही । "

सुनील तो ये बात सुन क मन ही मन उनकी अज्ञानता और अल्प जानकारीयो पर  दुखी हो के  चला आया और मुझे बता दी। मुझे बहुत तकलीफ हुई पर, मन ही मन परमात्मा को धन्यावाद दिया की उनका वो मुर्खता पूर्ण कुतर्क मैंने अपने कानो से प्रत्यक्ष नही सुना वरना उसी पल उन दोनो  से मेरे को तर्क - वितर्क करना पडता  तथा बात  आगे बढती तो माहोल  हिंसक भी हो सकता था जिससे वो मुझे कॉलोनी में बदतमीजी के  आरोप में गिरफ्तार भी करा सकते थे वेसे भी काम आसान  था क्योंकि बसपा की सरकार हम लोगो को  फसाने के बहाने ही चहिये। ऊपर वाले की दुआ से बच  गये.
              अब बात शुरु करते है किसानों की।  हालाँकि वो जगह हम 2010 में ही छोड़ चुके है पर वो पंक्ति आज भी याद  है अतः चर्चा जायज़ भी है। ये बात सभी भलीभांति जानते है कि  अपना देश एक कृषि प्रधान  देश है तथा  इसकी लगभग 70% जनता का  आज भी भरण - पोषण  कृषि पर ही निर्भर है। भारत की कृषि वर्षा  के  ऊपर  आधारित है ये बात भी नयी नहीं है। यानी कि  मानसून  की दरियादिली पर बहुत  ज्यादा निर्भरता है। यानी  कि अगर मानसून अच्छा न हो तो किसान के दो वक़्त की रोटी के  भी लाले पड जाते है .ऊपर से पीढ़ी  दर पीढ़ी, कृषि योग्य जमीन में आती कमी जिससे कि एक किसान के हिस्से में मुश्किल से परिवार चालने के लायक भी जमीन नही बच पा रही है अधिकतर मामलो में यही देखने मे आ रहा है। ज्यादा आवासीय जमीन की मांग के चलते  कृषि योग्य जमीन का  व्यवसाय किया जा रहा है जिससे जमीन की किल्लत दिन प्रति  दिन बढती जा रही है। सिंचाई के  साधनो में नलकूप और नहरों पर निर्भरता है और इनका हाल यह है कि नलकूपों के लिए बिजली नही है और नहरो में कभी टेल तक पानी पहुँचता नही है। और डीजल से सिचाई इसकी  दरों को देखते हुए सम्भव नही। यानी वक़्त पे पानी न मिल पाने से फसल की तबाही अक्सर ही हो जाती है जैसा समाचार पत्रो में छपता ही रहता है की फलां फलां जगह सुखा ग्रस्त है फसल सूखे से नष्ट हो जा रही है।
     ये तमाम  बाते थी पानी कि कमी के कारण। अब अगर ज्यादा मानसून के  चलते बाढ़ आ जाये  तो दूर दूर तक जल के कारण कुछ नही बचता। यानी कि सब कुछ भगवान भरोसे इस पर किसान का कोई बस नही।

 अब बात करते है कि फसल के शुरु में बीज चहिये  जो कि बुआई के वक़्त किसी भी सरकार कि तरफ से उपलब्ध नही करवाया जाता, हाँ सरकारी योजनाओ के अनुसार हमेशा हो जाता है पर वो सब कागजो तक सीमित है। यानी के किसान महंगा  क़र्ज़ ले के बीज बाजार से खरीदे फिर उसे बो देने के बाद जी-तोड़ मेहनत करे, महंगे महंगे उर्वरक डाले और तभी सुखा पड  जाये या बे मोसम बाढ़ आ जाये। क्या होगा सब बर्बाद।
   अब मान लो ऊपर वाले क रहम से 3 - 4  महीने में फसल तैयार हो गयी तब सुरु होता उस से भी बुरा दोर। फसल का कोडी के भाव बिकना। यानि कि अच्छी फसल को भी बनिया नाक-भो  सकोड़ के ओने पोने दामो में ऐसे खरीदता है जैसे बहुत ही घाटे में जाने वाला हो। खैर किसान की मजबूरी होती है की क़र्ज़ चुकाना है, कुछ खाने को भी बचाना  है सो दे देता है भले ही अपनी मूल लागत मिले या न मिले वरना वैसे भी फसल के सड जाने के बाद कुछ नही मिलना।  अब किसान के घर से फसल उठते ही हो जाती है सोने के भाव। यानी जो फसल किसान के यहाँ से 500 के  भाव गयी वो अब  जाएगी 800 में   बनिये की दुकान पर और अंत में ग्राहक को पड़ेगी 900 के भाव। ये हुई बीच में मुनाफा खोरी जिसे रोकने के लिए सरकार हर रोज कदम उठाने को कहती है पर लगता है कदम जमीन में ज्यादा धस गये है की उठ ही नहीं पा रहे है।
           इन्ही उपरोक्त कारणों से  सम्पूर्ण भारत मे हजारो किसान हर वर्ष आत्म हत्या रहे  ले रहे है।  अभी एक लेख पढ़ा था अखबार में कि  महाराष्ट्र में तो किसान लोगो की लडकियो  की शादी तक  नही हो पा रही है धनाभाव के कारण। अब इससे बड़ी लाचारी क्या हो सकती है की  माँ बाप बच्चो को खिला  न सके और शिक्षा न दे सके।
        हाँ, हर बजट में, हर सरकारी घोषणा में किसानो का ज़िक्र ज़रूर किया जाता है किसानो को आत्म निर्भर बनाने का वादा  किया जाता है लेकिन सालों से हालात वही जस का तस है 
             लेकिन मेरे  देशवासी, कुछ लोगो को लगता है कि साला बस किसान के  मजे है एक बार बीज बिखेर आओ खेत में और कुछ दिन बाद जा के  काट  लो फसल और साला मोटे पैसे में बेच दो कुछ करना ही नही है।

         



 

गुरुवार, 14 मार्च 2013

शान में गुस्ताखी ... मतलब आफत को न्योता

शान  में गुस्ताखी ... इस जमाने  में भला किसे ग्वारी। खाशकर हमारे नेता जी लोग ओर  पुलिस  विभाग  इस कदम  को बहुत  ही गंभीरतापूर्वक  लेते है । अतः आप सभी पाठको से विनम्र निवेदन  है कि भूल वश भी ऐसा  कोई कदम  न उठाएं की उपरोक्त लोगो( भले ही वह इन्सान कोई छुट - भैया  नेता हो या एक मामूली  पुलिस का गैर  जिम्मेवार जवान ) को ना-गवार गुजरे अन्यथा गंभीर परिणाम भुगतने  पड़ सकते है। 

उदाहरण निम्नांकित हें - 

१-  हाल  ही में घर जाने का योग बना था वहाँ पर भी दिन की सुरुआत  अखबार से ही होती है । पेज खोला  की देखता  हूँ   मोटे -२ हरफो में  छापा है "ढाबे मालिक की रात  हवालात में बीती"। बड़ी  जिज्ञासा के  साथ पढना शुरु किया  कि आखीर  माज़रा क्या है भई। हुआ यूँ के हमारे नज़दीक के  कस्बे के एक सत्ता पक्ष के  मामूली से नेता जी रात को  ढाबे पे खाना उधेड़ने (खाने ) पहुंच गये। ऑर्डर - सोडर  हुआ फिर सुरु हुआ नेता जी का खाना। अब नेता जी ने ओर  रोटियाँ  मांगी तो  वही हुआ जिसकी आप कल्पना कर रहें  है. परम्परा अनुसार  परोशने वाले ने कहा की अभी सिक जाने दो(ढाबे का ये मूलभूत  नियम है  की वहां रोटी कभी वक़्त पे नही मिलती हमेशा रोटी मिलने के बीच में मजबूरीवश पानी पीने का वक़्त बड़े आराम से मिलता है जिससे पेट बिना रोटी के  ही   भर जाता है अक्सर  )। और उसने अपनी वो भीनी सी कतील मुस्कराहट भी नेता जी तरफ फेंक दी जो  हर ढाबे के परोशने वालो की एक सी होती है. अब नेता जी दिन भर देश की सेवा में मगन थे  शाम को भूख थी भी कुछ ज्यादा  जबर। रोटी सीकी  और परोशने वाले ने दे दी किसी दूसरे खाने वाले को जो  काफी देर से मांगने की अवस्था में था नेता जी की तरह । बस यही एक भयंकर भूल हो गयी ढाबा प्रबंधन  से की नेता जी मौजूदगी   में किसी और को रोटी पहले कैसे दे दी गयी? फिर सुरु हुआ नेता जी का बल प्रयोग ढाबे वाले पर लात घूंसों की अनियंत्रीत बोछार के रूप  में। बात यहीं नही थमी,खाना  छोड़ नेता जी जा पहुंचे एफ  आई आर करने थाने। फिर शुरु हुई   थानेदार सहाब की भूमिका। थानेदार सहाब  की नज़र में  ढाबा मालिक गुन्हेगार पल भर में ही शाबित हो गया जैसा की होना ही था।
क्योंकि थानेदार साहब पार्टी भक्त ओर नेता भक्त ज्यादा , कानून भक्त कम थे। अब भला नेता जी की शान में गुस्ताखी हो और थानेदार जी इसे होने दे क्या मालूम बात कल  ऊपर तक जा पहुंचे और तबादले का फरमान निकल जाये। अत : पुरे दल बल के  साथ थानेदार साहब जा धमके ढाबे पे और गालियों   से माहौल को रंगीन करते हुए ढाबे वाले को  लाठीयो के  दम से उठा के  गाड़ी में डाल के सीधे हवालात के लिए प्रस्थान किया। जाते जाते ढाबे मालिक के  सहयोगी को आदेश दे गये की साले अगर इसकी धुनाई में कुछ रियायत चाहता है तो थाने  में अंडा - करी और  रोटी मक्खन के साथ पूरे  थाने के  लिए जल्दी ले के आ जा।
 खैर सुबह मामला बड़े नेता जी(नगर अध्यक्ष ) की अदालत में जा कर सुलटा। 
इसीलिये  होशियार - यू . पी . में नेता जी की शान में गुस्ताखी माफ नहीं

२ - अन्ना आन्दोलन का वक़्त था और  मैं  रेल से मेरठ जा रहा था। अभी कुछ दूर ही पहुंचे की रेल रुक गई। मालूम हुआ की  पटरी में कोई दिक्कत है  रेल अभी आगे नही जाएगी. अब हमे पढने (भले ही इस लफ्ज़ का मतलब आजतक हमे मालूम नही) जाना था तो अविलंब हमने समनंतर मेरठ जाने वाले बस मार्ग पे आ गये की चलो भई बस से ही चलते हें। बस आई और  साहब हम उस में चढ़ लिए साथ में एक दीवान जी (पुलिस का सिपाही )भी चढ़ लिए। अब कंडेक्टर जी आये। नियमानुसार  पूरा टिकट के  पैसे  लिए(जैसा की बस में चढ़ने से पहले तय हुआ था की भले ही आधे रस्ते से चढ़े हो पर… ) ओर  टिकट बना दिया। अब बारी गाड़ी के  बोनेट पे बैठे दीवान जी की थी। कंडेक्टर ने पैसा माँगा की दीवान जी ने आँख दिखा दी। बस ये ही उनकी शान में गुस्ताखी हो गयी थी कि  अरे पुलिस से पैसा  कैसे माँगा बे?
 बस कंडेक्टर भी नया नया था ऊपर से अन्ना जी के आन्दोलन का  रंग सिर पे सवार था। टिकट मशीन रखी एक तरफ ओर एक हाथ से दीवान जी की गिरेबान पकड़ के  उन्हें बोनेट पे ही लीटा  लिया और 4 - 5 घुसे  दीवान जी के मोटे से पेट में अपने दूसरे ढाई किलो के  हाथ से जड़ दिये।
 अब वहाँ  तो बीच बचाव लोगो क दुवारा करा दिया गया। पर  कुछ दूर ही दीवान जी  का  थाना आ गया बस फिर क्या  गीदड़ घर में शेर हो गया. बस रोक ली गयी। कंडेक्टर  से नीचे आने को कहा  गया वो  धीरे से उतरा और उतरते ही अपने दोनो हाथ हवा में लहराते हुए चिल्लाया " मैं  अन्ना हजारे हूँ मुझे गिरफ्तार  करो ..."

इससे ज्यादा बेहतरीन पल मैने  अभी तक  अपने अल्प जीवन में नही देखा कि  दीवान जी भी इसे देख के  अपनी मार  भूल गये और आँख फाड़ -2 के क्या हुआ ये देखने में ही रह गये।
 खैर लोगो की प्रार्थना पे बस को जाने दिया गया और कंडेक्टर का नाम पूछ के  लिख लिया गया भविष्य देख लेने   के लिए। खुदा जाने बाद में क्या हुआ हो।

३ - अभी हाल ही में उत्तर प्रदेश शासन ने 2 0 1 2  में 12 वी पास एवं  जो छात्र अभी फिलहाल में भी स्नातक कर रहे हें मुफ्त में लैपटॉप बांटे- शीक्षा  प्रोत्साहन  के लिये में. सुना जाता हैकि  उसमे एक खास सोफ्टवेयर डाला गया है जिससे उस लैपटॉप में वालपपेर में माननीय अखिलेश जी तथा श्री मुलायम जी का फोटो है। अभी सुनने में आया है  कि  कुछ छात्रों ने उसे हँटाने की नाकाम और दुस्साहसीक कोशिश की तो सारा लैपटॉप ही बंद हो गया जो चल ही नही पा रहा है। जिसे ले के  छात्र H P(निर्माता कंपनी ) के सर्विस सेन्टर के  चक्कर काट रहें है।
 अब हो गयी न वो ही बात " नेता की शान में कोई गुस्ताखी बर्दास्त नही की जाएगी न ही  सेवकों के दुवारा ना  ही लैपटॉप नामक मशीन के दुवारा "
तो आई बात समझ " शान से कोई मजाक नही " वरना गंभीर परीणाम  भुगतो ....

        वैसे अभी वक़्त आ गया है की आप  इस लेख को पसंद करे या ना करे  पर कमेन्ट/शेयर जरुर करना है। क्योंकि प्रतिक्रिया ना देना हमारी शान के  खिलाफ  है। आखिर हम भी किसी प्रधान-मंत्री से कम नहीं है भई ।



बुधवार, 13 मार्च 2013

पीएचडी, दारूबाजी पर .....

हाल ही  में  इन्टरनेट पर एक शानदार पोस्ट देखी थी, सोचा चलो अपने ब्लॉग  में चिपकाकर  अपने दोस्तो  का ज्ञानवर्धन एवं मनोंरंजन  कर दें. वेसे जीवन का पहला ब्लॉग हे  तो सुरूआत  भी हंशी और दारू जैसी शुभ औषधी  के  साथ हो कलेज़े को कुछ ठण्डक पड़ेगी . यह लेख उन दारूबाजों को समर्पित है जिन्होंने अपनी पूरी  जिंदगी दारु को समर्पित कर रखी है. ऐसा अक्सर देखा जाता है कि लोग दो तीन पैग पीने के बाद अजीब अजीब से हरकतें करने लगते है, ये लोग उन दारूबाजों कि तरफ से लिखा गया है, जो ज्यादा पीने के बाद महसूस करते है. दारूबाजों से निवेदन है कि बोतल खोलने  के पहले इस लेख को पढ़े, क्योंकि पीने के बाद तो शायद दुसरे पढकर आपका उपचार करें.
तो फिर शुरू करें?

1) लक्षण : यदि आपको लगे कि आपके पैर ठन्डे और गीले हो रहे है.
कारण : आपने अपने गिलास को ढंग से नहीं पकड़ रखा है, (आप दारू को गिलास के पिछले हिस्से में उढ़ेल रहे है, जो आपके पैर पर गिर रही है)
उपचार : गिलास को धीरे से उलटिए, ताकि उसकी गहरे में आप झांक सके, अब फिर से उसमे दारु उडेलना शुरू करिये. अबकी सीधे से डालियेगा.

2) लक्षण : आपको  आँखों के सामने ढेर सारी रौशनी दिखाई पड़ रही है.
कारण : आप फर्श पर गिरे पड़े है.
उपचार : अपने शरीर को 90 डिग्री में घुमाइए , क्या कहा 90 डिग्री क्या होता  है ? देखा गणित से नफरत करने का क्या नतीजा होता है,? अपने एक हाथ को फर्श पर लगाइए और उठ खड़े होइए, 90 के फेर में मत अटकिये.

3) लक्षण : आपको सब कुछ धुंदला धुंदला दिखाई दे रहा है.
कारण : आप खाली गिलास के आर पार देख रहे है.
उपचार : अब देखना वेखना छोडिये और गिलास (सीधा करके) दारु डालिए.

4) लक्षण : पूरा फर्श हिल रहा है.
कारण : कोई भूकम्प वगैरह नहीं आया है, आप फर्श पर घसीटे जा रहे है.
उपचार : आपने आपको संयत करने की कोशिश करिये, और कम से कम उनसे पूछिए तो कि  भई कहाँ ले जा रहे हो? वहाँ दारु का इंतज़ाम है कि नहीं?

5) लक्षण : आपको सभी लोगो की आवाज गूंजती गूंजती सुने पड़ रही है.
कारण : नहीं भई, आप पहाडो पर नहीं हो, आपने अपना खाली गिलास कान में लगा रखा है.
उपचार : अब गिलास से टेलीफोन टेलीफोन खेलना छोडिये, गिलास भरिये और अगला पैग बनाइये.

6) लक्षण : आपको अपने परिवार के लोगों की  शक्लें अजीब अजीब सी लग रही है.
कारण : आप गलत घर में घुस आये हैं,
उपचार : इस से पहले कि वो आपको पीटें, दोनों हाथ जोड़कर उनको निवेदन करें कि वो आपको आपके घर तक छोड़कर आयें.

7) लक्षण : एक अजीब से महिला, जानी पहचानी आवाज में चिल्ला चिल्ला कर कुछ बेफिजूल सा कहने कि कोशिश कर रही है.
कारण : आप अपने ही घर में अपनी बीबी के सामने खड़े है. यदि महिला आपको पीने के बाद अजीब लग रही है, तो ये आपकी शादी के फैसले की जल्दबाजी का ही नतीजा है.
उपचार : “डार्लिंग, अब से तौबा, आगे से नहीं” टाइप के डायलोग (निवेदन भरे, मधुर स्वर में) पेश करिये. पत्नी जी, अपनी ऊर्जा खत्म होते ही, आपको आपके हाल पर छोड़ कर, पैर पटकती हुई चली जायेंगी.

8) लक्षण : वातावरण में अजीब सी गंध है, लेकिन कोई आपको बहुत प्यार कर रहा है.
कारण : आप नाली में गिरे पड़े है और सुवर/कुत्ता आपके मुंह को चाट रहा है.
उपचार : सुवर/कुत्ते को दूर हटाइए, नाले से उठने  की ( वैसे ही 90 डिग्री वाली )  कोशिश करिये

9) लक्षण : पूरा कमरा थरथरा रहा है, सभी लोग अजीब सी सफ़ेद पोशाक में है.
कारण : आप एम्बुलेंस में है.
उपचार : कुछ मत करिये, यूं ही पड़े रहिये, जो करना है डॉक्टर को करने दें.
10) लक्षण : सभी लोग उलटे उलटे (सर के बल चलते हुए)  दिखाई दे रहे है और सारे लोग अजीब सी खाकी पोशाक में है.
कारण : आप पुलिस थाने में है, और आपको उल्टा लटकाया गया है.
उपचार : उनसे पूछिए कि भई, हंगामा है क्यों बरपा थोड़ी सी जो पी ली है.

तो फिर आप लोग अपनी राय देना मत भूलिएगा, कोई और प्वाइंट रह गया हो तो जरूर बताइयेगा.