गुरुवार, 11 अप्रैल 2013

हैलो-हैलो आवाज आ रही है?

बात उस जमाने की है साहब, जब हम मुश्किल से तीसरी या चौथी जमात में पढ़ते होंगे तभी से शुरु हो गये  थे हमारे  और फोन के  सम्बन्ध.  वैसे इस दूरभाष यानी टेलिफोन को  हमारे चचा जान ऐलेक्जैंडर ग्रैहैम बेल जी  ने बहुत दिन पहले ह़ी दुनिया को दे दिया था। पर  हम जब गाँव में तीसरी में पढ़ते थे शहर जाना कभी होता नही था।  टेलिफोन का नाम सुन के ही खुश हो जाते थे जब पापा , शहर से आ के दादी को बताते की फोन पे मेरी बुआ जी यानी पापा की दीदी से उनकी बात हुई है और सब राज़ी खुशी है।बडा जोर से मन करता था की हम भी कभी फोन पे बात करें, सोचते थे कि न जाने कैसे बात करनी पड़ती होगी क्या कहना पड़ता होगा ,एवंम फोन सीधा बुआ जी के यहाँ ही कैसे पहुंचता है? और भी बहुत  कुछ, पर इच्छाओ का दमन करके सोचते की जब बड़े हो जायेंगे तब इस मरे फोन को जरुर खरीदेंगे। खैर कक्षा 5 में  हमारा दाखिला पास के शहर में करा दिया गया ओर वहाँ जा के हमारे और फोन में बीच कुछ निकटता आई पर इतनी के पाठशाला(स्कूल) के निकट की STD के  सामने से निकलते बड़ते देख लेते थे कि उधर की क्या होता है? कभी कभार STD पे जा पड़ताल भी करते की कम कैसे करता है फिर एक दिन सोचा की कही  बात की जाये तो सभी दोस्तों की राजी किया सभी से 1-1 रुपया मिला के 5 रुपया इक्कट्ठा करके जा पहुंचे STD पेसारे  लोग और संदीप को (जिसे अपनी की जानकारी का कोई फोन नम्बर याद था) उसे बात करवाई।जैसे ही बात खत्म हुई हम भी फोन से थोडा पीछे हटे कि पूछे क्या बात हुई और कैसे हुई  पर वो संदीप मानो सातवे  आसमान पे था बताए ही ना, खूब पीछे पीछे दौड़ाया नालायक ने पर नही बताई। यकीन मानिये मन की मन में रह गयी पर क्या करते। तभी सभी ने कहा कोई अपने घर नही बतायेगा की हमने कही  फोन किया है मानो कोई अपराध किया हो।
             सोचा अगली बार हम खुद ही  बात करेंगे बुआ जी से पर ये डर की  बुआ जी पिता श्री को बता देंगी फिर सोचते  बेटा  डंडा बहुत बजेगा और जाने देते । खैर एक दो साल कट गये और तब तक भारत सरकार की योजना के तहत ग्राम प्रधान के यहाँ फोन लग चुका था उसके लिए एक ऊँचा सा टावर लगा था सौर उर्जा से वो फोन चलता था पर वो भी हमे को फायदा न दे सका क्योंकि प्रधान का नौकर जिसका भी फोन आता था उस  के घर जा के बता आता था की फला  जगह से  फोन आया था और ये कहने को बोला है। तभी शहर से गांव की ओर को फोन की लाइन खुदनी शुरु गयी थी तब हम साइकिल ले चुके थे और स्कूल में रोज़ 8 किलो मीटर  साइकिल से ही जाते थे। रोज़ आते-जाते खुदाई देखते घंटो तक और मजदूरों से नादानी से पूछते चाचा फोन कब तक लगेंगे वो बेचारे कह देते "हमे का मालूम बेटा"। रोज़ नये से पूछते की शायद इसे मालूम हो पर जबाब एक ही आता और हम उदास हो के साइकिल में पेंडल मरते घर आ जाते. तब तक मोबाइल का नाम सुनना भी शुरु हो चुका  था  पर देखा नही था. लोग बताते कि उसमे को तार नही होता है जेब में ही जाता है सोचते की जब हमरी जेब में होगा ऐसा कोई यन्त्र तो मानो हमारी हैसियत् में चार चाँद लग जायेंगे। फोन लाइन पड  चुकी थी  और पापा ने आवेदन भी कर दिया था पर हमे मालूम नही था उस वक़्त मोबाइल हमारे दिमाग पे सवार था क्योंकि जब पहली बार हमारे  ही गांव के महेन्द्र यादव जी विधायक बने तो वो हाथ में ले के आये थे कुछ, हमने किसी से पूछा  वो क्या है जबाब मिला मोबाइल है । समझिये हमने अपने जीवन में किसी देव के साक्षात दर्शन कर लिए हो, बहुत  ख़ुशी हुई "ये जरुर लेना है" वो बड़ा सा मोबाइल ऊपर से उसकी खोपड़ी से सिग्नल पकड़ने के लिए एंटेना भी निकलता था वाह  क्या चीज़ थी। रात में सो भी ना सके।
       तभी महेन्द्र जी के भतीजे बलराज भैया ने भी मोबाइल ले लिया और वो थे  नेता जी के  निजी सचीव और भतीजे , तो ठाट बाट थे ही  चौराहे पे खड़े हो के जोर जोर से फोन पे बात करे, वो भी धौंस के साथ, कभी कभी पास वाले दो मंजिल मकान की छत पे भी आ जाते और चिल्लाते "हेल्लो हेल्लो आवाज़ आ रही है" में बलराज बोल रहा हूं ! खैर दिल को समझा लेते की बड़े हो जाये तब लेंगे  एक हम भी।
             वो दिन भी आ गया की जब BSNL वाले फोन लगाने गांव में आ गये और गड्ढा खोद के खम्बा गाड  रहे थे मैने मोका देखा कोई नही है तो कान में कह दिया फोन वालो से   भइया  पहले उस घर में लगा देना. खैर लग गया फोन भी सन 2000 की बात है हम 8 वी में थे तब अब गांव में चुनिंदा फोन थे। अब लोग हमारे यहाँ  आते फोन करवाने को हम भी शुरु में शौक - 2  में करवा देते पर शौक  अगले महीने  ही उड़ गया जब बिल आया हिला देने वाला। अब गांव में मना भी नही कर सकते थे किसी को , तो  तय हुआ की फोन पे ताला डलेगा . एक नम्बर लॉक आता था जो फोन के नम्बरों के ऊपर लग जाता था ताले  की तरह। अब पापा को जब कही बात करनी होती तो ताला खोल लेते और फिर लगा देते चाबी छुपा देते उन्हें मालूम था मै  भी बहुत  बिल बैठा रहा हूं इधर उधर वैसे ही नम्बर मिला मिला के।  मेरे भी फोन बंद और बाहर  वालो का भी। उस वक़्त जब फोन लगा ही था घर में  हम बच्चो की उसे के उठाने के लिए भी लड़ाई हो जाती थी की कौन  उठायेगा सभी को बहुत शौक   था इसी लिए एक दो बात पिटाई भी हुई।और आज उठाने  उठाने  को हम  बहुत  बड़ा कम समझते है  बज़ रहा है बजने दो।
          तभी गांव के ही एक पप्पू भइया  ने गांव में STD खोल ली और लोग वहाँ जाने लगे। वो लोगो से फोन सुनने के भी पैसे लेते थे  बहुत लोगो ने  STD का नम्बर अपने रिश्तदारो को दे रखा था  अब अगर किसी का फोन आता तो पप्पू भइया माइक में आवाज़ लगा देते लाउड स्पिकर से कि  फला का फलाँ जगह से फोन है और वो आ जाता सुन के चला जाता था सुनने का अलग चार्ज था । २ रुपया आवाज़ लगाने का भी लेते थे। 
           अब मोबाइल का ज़माना  आ गया था  तथा लोगो  के हाथ में मोबाइल आने शुरु हो गये थे वो रिलायंस वाले सहवाग की माँ वाले प्रचार जैसे मोबाइल का क्रेज़ था । वक़्त था सन 2004 के आस पास का।  लोग हाथ में छोटा सा खिलौना ले के चलते और खली वक़्त में उसकी वो पोलिफोनिक रिंगटोन सुनते और लोगो को सुना के होव्वा बनाते किसी VIP की तरह  । धूम मचा ले -2  की रिंग टोन  ने तो अपनी अलग ही पहचान बनाई। मन करता की कब होगा अपने पास यह । अब टेलिफोन से मोह भंग हो चुका था. और जब लोग अलग अलग सुविधाए बताते मोबाइल की तो  मन ओर  भी ललचा  जाता था कोई वाइब्रेशन के बारे में  बताता  तो कोई फोटो वाला मोबाइल , कोई गाने वाला , कोई कैमरा वाला। आज भले ही आँख के  इशारे पे मोबाइल नाचता हो पर उस वक़्त  वो भी कम नही था बल्कि ज्यादा ही था आज के हिसाब से।
          2006 में जब B.TECH में दाखिला लिया फोन भी मिला जो की मेरे बहन ने अपना वाला  पुराना दिया था  । मानो भगवान मिल गये थे उस वक़्त 2 रूपये की कॉल दर थी फिर सस्ती हुई, फिर रात भर बात के ऑफर आये कुछ खाश लोगो के लिए ओर  फोन अपने पैर फैलता गया। आज उधर उधर देख सकने वाली भी भी  फोन में है कहते है  3G उसे.
         आज हाल ये है की मै फोन साथ रखना किसी आफत से कम  नही समझता बेवजह परेशान करने की मशीन है। और मेरे गांव में बच्चे बच्चे के हाथ में मोबाइल है।चाइना निर्मित मोबाइल धुआं उठा रहे है मजदूर भाई लोगो के हाथ में तेज़ आवाज़ में गाने वाह  क्या बात है मोबाइल से । भारत आगे बढ़ रहा है कोई संदेह नही। अब तो मेरे गांव के बच्चे भी फेसबुक इस्तेमाल कर  रहे है धडल्ले  से  चैट भी करते है जबकि वो गांव में ही रहते है पर जमाने के साथ हैं। पर वो पहले जैसी उत्सुकता कहाँ है कुछ पाने की उसमे अपना ही मज़ा था। अब तो माँ बाप सब कुछ पहले से ही दिला  दे रहें है पर वो पहले दिन गज़ब थे 
           शायद आप लोगो की भी यही कुछ दिलचस्प कहानी हो या ब्लॉग पसंद आये   तो कमेंट करे।  स्वागत है 

1 टिप्पणी:

  1. विकास और विरोधाभास का यथार्थ चित्रण!! अच्छा संस्मरण भी!!

    वर्ड वेरीफिकेशन निकाल लें.

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