सोमवार, 3 फ़रवरी 2014

दिल्ली किसकी ? इनकी , इनके बाप की इनके दादा की!!! और किसकी भाई !!!

मेरा घर दिल्ली से लगभग 60  कि.मी. के दायरे में उत्तर प्रदेश में है और दिल्ली में मेरा  आना जाना लगभग  बचपन  से  ही  है और मैने कभी खुद को यहाँ से बाहर का नही समझा।   मैं  यहाँ  के माहौल तथा  रहन सहन से वाकायदा वाकिफ रहा हूँ।  मैं अब लगभग एक महीने से नौकरी के चलते  अपने दोस्तो के साथ दिल्ली में रहने लगा हूँ।  इससे पहले मै मेरठ में 6 साल एक छात्र के तौर पर था। अब बात करते है असली मुद्दे की।  
            तो जनाब  आप तो जानते ही कि बाहर से आकर कहीँ और बसने वालो के साथ कुछ छोटी मानसिकता तथा  घटिया सोच के लोगो का सलूक कैसा होता है।  आप तरह तरह के अख़बार तथा अन्य माध्यमों सुनते ही रहते होंगे कि उधर राज ठाकरे साहब कि सेना किस हद तक नफरत पाले बैठी रहती है कि लोगो को वहा जाने कि सजा मौत भी दे दी जाती है और भी बहुत  उदहारण है आप स्वंम जानते ही है।  मैं सोचता था कि दिल्ली के मन में किसी के लिए कोई भेदभाव नही है ये सभी को स्वीकार कर लेती है करे भी क्यों नही ,  आखिर दिल्ली पुरे देश कि है  न कि किसी खाश की।  
            पर अब मेरा नज़रिया बदल गया है  अब लगता है दिल्ली केवल यहाँ के मूल निवासियों कि ही है क्योंकि यहाँ आने कि सजा भी लोगो को जान के तौर  पर चुकानी पड  रही है।   क्योंकि यहा तो लोगो कि सक्ल का भी मज़ाक बनाया जाता है।  मुझे शर्म आती  है ऐसे लोगो को अपने देश का नागरिक मानने में भी जो किसी निर्दोष कि जान के प्यासे हो सकते हो।  क्या दिल्ली उनके बाप कि है ? या उनकी जागीर है ? अरे हमारे यहाँ कि संस्कृति हमे अतिथि देवो भव:  सीखाती है  पर अब संस्कृति कि परवाह किसे है ? मै  ये कहते हुऐ शर्मिन्दा हूँ कि मैं  उस दिल्ली में रहता हूँ जो पुरे भारत  का दिल है,  पहचान है और जो किसी  अपने देशवासी कि ही जान की  प्यासी हो सकती है।  शायद अब में ये कभी न कह सकूँ कि दिल्ली दिल वालो कि है।  

       मै कुछ दिन से ये सोचता हूँ  कि आखिर इन लोगो को किस बात का डर है कि ये लोग खून के प्यासे हो सकते है खैर कुछ तो होगा ही।  शायद इन्हे लगता हो  कि बाहर  से आ कर ये लोग अच्छा खाशा क्यों कमा रहे है जो इन्हे मिल  रहा है उस पर तो इनके बच्चो का हक़ है।  वजह,   कुछ न कुछ तो है,  कोई न कोई डर  तो इन्हें अहिंसक बना रहा है।  कौन इन्हे आज़ादी देता है कि किसी का मज़ाक बनया जाये। क्या अब हम अपने देश में  ही बेगानो कि तरह रहना सीख लें ? क्या यही आज़ादी के असली मायने है ? 
       आज में खुद इक छोटी सी घटना का शिकार बना।  एक गली से निकला आ  रहा था अपने अपार्टमेंट  के सामने से ही और कुछ देर पहले ही उसी गली से गया भी था  पर आते वक़्त एक  60  के करीब के बूढ़े ने अपने घर के सामने रोक कर पूछा "कहाँ  जावेगा ?" मेने सोचा कि शायद ये रास्ता भटक गया है कहीं जाना होगा  इस लिए पूछ रहा है  मेने बोल दिया  "आपको कहाँ  जाना है ?" इतना सुनते ही वो तो भडक   गया।  बोला "इस गली से आगे नही जा सकता तू।" " वापस हो ले।"  बड़ा अजीब लगा सुन कर।  बहस करने लगा मै भी ।  वो भी हेंकड़ी दिखाने लगा … सोचा अगर इसके कान  के नीचे एक ढंग से केवल एक रख दूँ तो शायद 302  के मामले में जेल कि हवा खानी पड़े।  वो भी देखा जाये तो अगर इसे कुछ कहा तो  देखने वाले मुझे ही कहेंगे कि भाई शाहब,  बूढ़े आदमी है ये तो।  आप को ही समझना चाहिए आप तो पढ़े लिखे है।   अब साला हम पढ़े लिखे है तो गुलामी झेले क्या? रस्ते से चुप चाप अपने घर भी न जाये ? काश वो हम उम्र होता तो जोर आज़माइश हो जाती।  वही २ लड़के भी खड़े सुन रहे थे बोलो कि " भईया ये पागल इंसान है आप वापस ही दूसरी गली से निकल जाओ  ये तो रोज़ रोज़ किसी के साथ अप घर क सामने यही पंगा पाले रहता है।  "  पता नही क्या दिमाग में आया कि चला आया सुन सुना कर।  पर  खुद पर शर्मिंदा हूँ कि क्यों आ गया।   बार बार सोच कर खून खोल रहा है कि कितनी बेज्जती कि बात है यार।  पर वो बूढ़ा था यही मेरी बदकिस्मती थी।  खैर   जो हुआ सो हुआ।  

ओर ऐसा नही है कि मेरे साथ हुआ है तभी मुझे मालूम चला है ऐसा मैने पहले भी होते देखा है  पर वहा मैनें गलत को गलत कहा  है मैं  चुप नही बैठता सकता ।  

 अब लगा आप अंदाज़ा लगा सकते हैं कि कि मैं  यही का हो कर भी  ये सब झेलने कि विवश हुआ तो जो सुदूर से आते है उन पर क्या बीतती होगी।  पर ऊपर वाले का शुक्र है कि यहाँ अच्छे लोग अभी भी है  सभी एक से नही हुए है
 
 मन में सवाल आता ही है कि दिल्ली किसकी ? इनकी , इनके बाप की , इनके दादा की  और किसकी भाई !!!

शुक्रवार, 22 नवंबर 2013

तहलका वाले का शर्मनाक तहलका

बात  बहुत पुरानी नही हुई है जब दिल्ली में वो शर्मनाक घटना घटी थी पुरे देश में उस घटना ने जो रोष फैलाया वो दुनिया ने देखा।    और शायद उसी वजह से आज हमारे पास एक कानून है।   वो बात अलग है कि कुछ लोगो को न कानून का डर  है, न शर्म है, न हया है, न उम्र का लिहाज है।
         उस वक़्त जब वो घटना घटी थी तो लोग सड़को  थे यहाँ तक कि राष्ट्रपति भवन में घुसने तक आमदा हो गये थे। और इसमें कोई दोराय नही कि उस आन्दोलन कि कामयाबी के पीछे मीडिया का सहयोग बेशक सरहानीय था. 
          चलो उसमे घटना के बाद जो हुआ सब जानते है. पर उस घटना के समय बहुत  लोगो ने अपनी जबान खोली थी बहुत कुछ लिखा था ,बोला था तरह तरह माध्यमो से। पर आज मुझे  लग रहा है कि लोगो कि कथनी और करनी में वास्तव में फर्क़  होता है। . मुझे कल से ही बहुत  दुःख है इस बात का कि इन्सान कितना गिर गया है न शर्म है न हया है न उम्र का लिहाज है.
         मैं उन लोगो के लिए नरम रवैया अपना सकता  हूँ जो अनपढ़ है जाहिल है या अपराधी ही है पर उस उस पागल या  सनकी के लिए नही  जो खुद को  औरत जात  का हमदर्द कहता हो और उनके अधिकारो के लिए बड़े बड़े दावे और भाषण बाज़ी करता हो।   कहने का मतलब है खुद को एक बुद्धजीवी  देवता के तोर पर पेश करता हो  और काम  दानवों  वाले करता हो.
          शायद आप समझ ही गये है कि तरुण तेजपाल नामक एक आदमी कि बात कर  रहा हूँ जो कि तहलका के सम्पादक व  संस्थापक था  कल तक।  उसने  क्या किया ये भी आप जानते ही होंगे। फिर भी बता दूँ  उसने अपनी सहकर्मी,   अपने दोस्त कि बेटी तथा  अपनी बेटी कि दोस्त के साथ ###### किया वो भी बिना रज़ामंदी के लगातार  दो दिन।   मै इसे  किसी और के साथ नही बल्कि उस कि स्वम् कि बेटी के साथ ये बलात्कार मानता हूँ क्योंकि वो उम्र में भी उस कि स्वम् कि बेटी के ही बराबर  थी तथा  खाश दोस्त भी  और खुद उसके दोस्त कि बेटी।  बोलते है कि नशे कि हालत में सब हुआ  पर क्या नशे में लोग अपनी माँ ,बहन,  बेटी   को  भी भूल  जाते है क्या ?  नही ना।  तब तो ये सरासर इरादे से किया हुआ कार्य है।  ऐसा मै  नही कहता खुद उसका ख़त कहता है।  

       सवाल ये है कि जब ऐसे लोग जो  खुद दूसरो को उपदेश देते घूमते है कि ये गलत  है ये सही है फलां ढिमका।  और खुद कम अपराधियो वाले करते है ये पापी।  तो अब  आम आदमी किस पर यकीन करे।   मै कहूँगा कि किसी पर नही।  

और देखो इस इंसान का भोलापन खुद सब कुछ कबूला और कहा  मुझे मलाल है उस घटना का . "अबे सनकी ये कैसा मलाल कि लगातार दो दिन तक इंसान होश में रहने कि बावजूद किसी की इज्जत से खेले  बाद में माफ़ी मांग ले और चलता बने. " 

  खुद ही खुद को सजा मुकरर कर ली वो भी छ:  महीने कि छुट्टी।    इस से कोई पूछने  वाला हो कि अबे ऐसी सजा किस अपराधी को नही चाहिये बे ।   ये सजा नही मज़ा है अपराध करने के बाद का . इससे अच्छा क्या होगा कि कल को कोई कुछ भी करेगा  और अगले दिन कहेगा कि मुझ से गलती हुई है अब में छुट्टी पर जा रहा हूँ।  
      और अब बात करते है तहलका कि बहुत  खुलासे करते थे ये लोग।  हमे भी अच्छ लगता था कि जान कर कर लोगो कि असलियत .  पर इन लोगो ने दुसरो कि असलियत तो खूब पहचानी और लोगो तक पहुँचायी पर अपनी छुपायी और अब किसी तरह असे मामला जब खुल गया तो कहते है कि बात खुल गयी.  अब बहुत दुःख हो रहा है इन्हे। और तो और खुद तरुण का बचाव पर उतर आयें  है बेशर्म।  हद होती है बेशर्मी कि भी।  
      कुछ दिनों पहले एक ढोगी  बाबा ओर  फंसे थे  इसी तरह के अपराध में।  तहलका ने पूरा कच्चा चिट्ठाह खोल दिया बाबा के खिलाप पूरी तहकीकात कि(lhttp://www.tehelkahindi.com/%E0%A4%86%E0%A4%B5%E0%A4%B0%E0%A4%A3-%E0%A4%95%E0%A4%A5%E0%A4%BE/1963.html)  और दुनिया को रु ब रु कराया उस । पर अपने ऊपर आंच  आयी तो भाग लिए।  अगर इंसाफ से वास्तव में ही कोई लगाव था तो तरुण को मामले के सामने आते ही सजा दिलाना चाहिए था ना पर इन लोगो ने मामले को छुपाया इसलिए इन्हे भी सजा मिले।  

  मै भी बड़े शौक से इस पत्रिका को पढ़ता था पर आज खुद पर शर्म आती है. कि कितना वक़्त जाया कर दिया। लोग मुखोटा लगा कर घूमते है।  विश्वास नही होता कि मिडिया से जुड़ा हुआ कोई लगभग बुढा इंसान इसे गिरी हुई हरकत करेगा  पर कि है  ये सच है।  

  
  शर्म शर्म शर्म शर्म शर्म शर्म शर्म शर्म शर्म शर्म शर्म शर्म शर्म शर्म शर्म शर्म शर्म शर्म शर्म शर्म शर्म शर्म शर्म

    

 

सोमवार, 29 जुलाई 2013

मुफ्त की नसीहत -औकात बोध

आज के इस दौर में किसी भी प्राणी को उसका औकात बोध होना बहुत ही जरूरी है और अगर को किसी को अभी तक नही हुआ है  तो मै  उसे अभी तत्काल सलाह दूंगा की  अभी  से अपनी औकात जानने के लिए प्रयासरत हो जाये वरना विश्वास करना, गलत फहमी बड़ी नुकसान दायक होती है और आप को मानसिक पीडा,  जिसे दिल को ठेस  पहुँचना भी  कहते है कभी भी हो सकती है और  इसमें सबसे पहले ये पता लगाना चाहिये की तुम्हारी औकात  तुम्हारे जानने वालो में कितनी है चाहे उसके लिए कोई भी युक्ति अपनानी पड़े  हो सकता है मेरे आज के ब्लॉग से बहुत  से लोगो को आपत्ति हो  पर मेरी  ये बात  किसी हद तक तर्कयुक्त है और इस बात की  सच्चाई का प्रमाण लेना हो तो उनसे ले जो मेरे या आप के साथी लोग  अपने दोस्तों  या परिवार गण इत्यादि पर बहुत  अभिमान करते थे पर एक पल में जब उनका अभिमान चूर चूर हो गया तब उन्हें अपनी औकात का असली वाला बोध हुआ इसी लिए मैने  आज सोचा की क्यों न अपनी औकात का बोध समय रहते कर लिया जाये ताकि यतार्थ में ख़ुशी खशी जिया जा सके नही तो जब कोईओर  हमे हमारी औकात का बोध कराएगा तो हमे बेपनाह दर्द होगा था और हम उस दर्द को किसी को बता भी नही सकते हमे चुप चुप सहना पड़ेगा बस। अपनी औकात जानने की प्रक्रिया में सभी को शामिल करना ही समझदारी है दोस्त, भाई, बहन परिवार , कुछ और खाश  लोग सभी को आज़माना चाहिए समय समय पर। दरअसल फेसबुक के प्रेमियों  के  लिए ये बात और भी जोर शोर से लागू होती है इस आभासी दुनिया ने लोगो को गलत फहमी में रहना सीखा दिया है। वो सोचते है की वो बहुत  बड़े सामाजिक है पर क्या वास्तव में है? जबाब सभी को मालूम है। खेर मै  इस फेसबुक वाली आफत से कोसो दूर हूँ पिछले २ साल से क्योंकि में नही चाहता की मुझे ये भी बताना पडे आज मैने क्या खाया  और किस तरफ देखा और क्या पहना ? मानो साला  फेसबुक न हुई मोहल्ले क सभी रिटायर बूढों की चौपाल  हो गयी सब कुछ उन्हें बताना जरूरी है।और जहाँ तक बात है मेरी औकात की एक ब्लोगर होने क नाते बहुत  दिन पहले ही जान गया था की कुछ को छोड़ सबकी नज़र में फालतू ही तो  हूँ। और किसी से ज्यादा उम्मीद में रखता नही । धोखा कभी भी मिल सकता है इस के लिए हमेशा तैयार रहता हूँ पता नही कहाँ कौन धोखे और  अपमान से नवाज़ दे । और हमे, हमारी औकात भी हमारे कुछ कथित साथियों ने ही बतायी। तहे  दिल से धन्यवाद उन सभी का । वरना न जाने कितने दिन और गलत  फहमी में जीते । आप को भी यही सलाह है दोस्तों जिसे अजमाना है समय रहते अजमा लो वरना आगे होने वाले किसी भी दुःख के तन ही जिम्मेदार रहोगे । हो सकता है आज का मेरा ब्लॉग सभी को नकारात्मक लगे पर सच्चाई है  दोस्तों यहाँ  अधिकतर लोग स्वार्थी  है इस लिए अगर अभी से यतार्थ में जीने की आदत डाल ली जाये तो आसानी है होगी । और ये ब्लॉग मेरे साथ हुई किसी घटना का जबाब या भडास नही है बस एक आप  सभी को मुफ्त की नसीहत है। क्योंकि मै मानता हूँ  आज के दौर में जो ये जनता है कि  उसकी औकात कितनी है वो हो सबसे बड़ा ज्ञानी है कम से कम वो यतार्थ में  रह कर अपनी औकात के हिसाब से कुछ कर तो सकता है

शुक्रवार, 19 जुलाई 2013

आम

आज लगभग दो महीने बाद फिर से ब्लॉग पर हूँ आप की सेवा में , दरअसल अस्वस्थ होने के  कारण सक्रिय नही रह पाया। समय तो था पर जैसा सभी जानते है की मन नही होता उस वक्त जब आप बीमार हो कुछ भी करने का। 

      आम,आमतौर ये शब्द हम  रोज कही  न कही किसी न किसी रूप में इस्तेमाल कर ही लेते है। जैसे कि आम आदमी , आम भाषा , आमतौर , आम रास्ता  आदि। पर सबसे महत्वपूर्ण आम शब्द  है आम

     आम से याद आया की मुझे मई, जून, जुलाई आमतौर पर सबसे ज्यादा पसंद महीने है  इसलिए नही की गर्मी बहुत पड़ती है बल्कि आम के कारण। दरसल मेरी तम्म्न्ना है की काश  मै उस  महापुरुष से  मिल पता जिसने आम को फलो का राजा नाम की संज्ञा दी और उन्हें इस ताज पोसगी के लिए धन्यवाद स्वरुप कुछ भेंट देता। वास्तव में देखा जाये तो आम कोई आम फल नही है बल्कि मै तो मानता हूं कि आम केवल फलो का आम राजा नही बल्कि सम्राट है यानि फल सम्राट आम।

         इसके गुणों की बात की जाये तो अनेक क गुण है लेकिन इसका विशिष्ट स्वाद इसके गुणों के बारे में सोचने की नौबत ही नही आने देता बल्कि  उससे पहले आम , आम प्रेमी के पेट में होता है। आम के अनेको प्रकार और सबका अलग अलग जयका  इसकी तारीफ में चार चाँद लगा देता है।  लखनऊ का आम   किसी नबाब से कम नही। वाह क्या  स्वाद होता है। लंगडा , दशहरी , चौसा, रामकेला आदि  अलग अलग प्रकार अलग अलग बनावट और स्वाद के साथ।   और अगर डाल का आम हो तो कहना ही क्या।  जिसमे टपका का तो कोई सानी ही नही।

       और जब बात आती है आम को खाने की तो असली स्वाद तभी आता है जब इसे पूरी बेसरमी के साथ खाया जाये मतलब की एक बार में सारा छीलकर बोल दो आक्रमण और जब गुठली पर  पहुंच जाओ तो गुठली को इतना चुन्सो कि उसका पीलापन खत्म न हो जाये तभी मन को आम खाने के असली बेसरमी स्वाद का अहसास होता है अब अगर आम भी चाकू और कांटे  के साथ खाया तो क्या खाक आम खाया। आम खाते वक़्त जब तक हाथ-मुहँ न सनें आम से तथा गुठली को मुहं से बार बार निकाल कर  फिर से मुहं में डाल के न चुन्सा जाये तो बेकार है सब। आम की गुठली के अलावा कोई ओर कोई शाकाहारी चीज़ नही जिसे इन्सान एक बार मुहं से निकल के कर  बिना नाक भौं सिकोडे  फिर से उसी उत्सुकता के साथ मुह में डाल ले। यही है आम की खूबसूरती। मेरा एक मित्र तो आम केवल इस लिए खाता है की उसे कब्ज की समस्या है और आम उसका रामबाण इलाज। 
          
        और अगर आम  कुदरती स्वाद चखना है तो पहुँच जाओ आम के बाग में और जितना खा सको  उतना ले कर वही बाग में ही बैठ जाओ खाने  पेड़ो की घनी छाया के बीच ताज़ा ताज़ा आम वो भी सामने बाल्टी में पानी में भीगे हुए और तुम खाट पर  बैठ चुन चुन कर एक एक आम पर आक्रमण बोल रहे हो तब रूह को तृप्त करने वाला अहसास होता है कभी आज़माना और तब बताना। 

बुधवार, 29 मई 2013

आधुनिक फैशन

आजकल मेरे महान देश में फैशन नामक गतिविधि बहुत तेज़ी से अनेक रूपो में अपने  पैर पसार रही है। अतः आज इन्हीं कुछ ना-ना प्रकार की गतिविधियों पर चर्चा होगी।
       फैशन न० 1 
आप देश के किसी भी कोने में चले जाओ यानी के रेल, बस, टेम्पों, घोडा-तांगा, रिक्शा, गांव में सेवानिवृत चचाओ की चौपाल या शहर में सुबह-2 दूध लेने गये नौकरी पेशे वाले लोग या किसी कॉलेज की कैंटीन में बैठे डुड-डुडनी प्रजाति के साथी या नुक्कड़ वाले बनिये की परचून की दुकान या विपक्षी पार्टी के कार्यकर्ता या टयूबवेल पर बैठे बीड़ी पीते किसान या बाबा के हुक्के के चारो तरफ बैठे बुजुर्ग, या दफ्तर से शाम के वापस घर लौटते सरकारी बाबू, इन सभी को दिक्कत है सरकार से या इस देश से, अलग अलग रूपों में। किसी की दिक्कत है तनख्वाह समय से नही आती,किसी की समस्या है फसल के दाम मुनासिब नही है या किसी की परेशानी है कि भ्रष्टाचार बहुत है या किसी को तो ये देश ही नही भाता। हम अल्प शब्दों में कहे तो आप सुबह से ले कर शाम तक किसी भी वक्त अपने घर से निकले आप बिना सरकार या देश की बुराई सुने अपने गंतव्य पहुंच ही नही सकते बशर्ते आप के कानो में रुई न ठुंसी गयी हो, मै इस बात का दावा करता  हूँ की अगर दो या दो से अधिक लोग कहीं  बैठे है तो वहा सरकार या देश के बारे  में बात हुई होगी और अनेक तर्क-कुतर्क हुए होंगे। मानो हर इन्सान अपने दिल में इस देश पर डालने के लिए परमाणु बम लिए बैठा है बस मौका  मिल जाये। 
          समस्या होना अच्छी बात है। समस्या है तो उसका समाधान भी जरूरी है। पर मै मानता हूँ कि आजकल ये  एक फैशन सा बन गया है कि जो देश या सरकार की बुराई जितने अधिक शब्दो और जितनी ज्यादा देर तक कर दे वो उतना ही बड़ा फैशन-परस्त। हर आदमी इस गतिविधि में हिस्सा लेता  है। AC गाडियों  या AC दफ्तरों में बैठ देश की माली हालत का जिक्र करना तथा सिस्टम को कोसना जैसे आधुनिक फैशन और कथित देश-शुभचिंतक लोगो का धर्म हो गया हो। हाँ अगर उन से सवाल  किया जाये कि वो  खुद देश या सरकार को  माली हालत से  निकालने के लिए क्या सहयोग कर रहे? तो साहब लोगो को सांप सूंघ जाता है। करेंगे कुछ नही पर बाते बडी-2 करेंगे।
इस फैशन ने आजकल मेरे नाक में दम कर रखा  है कही  भी जाऊं बस यही देश और सरकार विरोधी बाते मानो आज कल एक दुसरे से बात शुरु करने का पहला वाक्य ही ये बन गया है  " इस देश का कुछ नही होगा "
  मेरे  देशवासियो मेहरबानी करके बचो इस आदत से, इस फैशन में  सरीक हों इससे अच्छा है कुछ देश के लिए करें, न की केवल बातें।
 फैशन न० 2 
आजकल मैं एक और फैशन पर गोर फरमा कर रहा हूँ कि मेरे कुछ युवा साथी सडक या बस या यात्रा के दौरान कानों में मोबाइल या किसी और संगीत यंत्र के हेडफोन  लगाने की आदत या फैशन से ग्रस्त हैं।
     संगीत प्रेम बहुत  अच्छी बात है या यों कहें संगीत बिन जीवन अधूरा है। मै भी संगीत प्रेमी हूँ। पर इस प्रेम में चक्कर में जान का खतरा मोल अच्छी बात नही है। 
   मैने देखा है कि मेरे युवा साथीयो ने इसे बहुत बडा फैशन समझ लिया है कि अगर कुछ काम  नही कर  रहे तो  कानो में हेडफोन ठूस लो चाहे आप सार्वजनिक स्थान पर  हो या यात्रा में। भले ही कोई तुम्हारा जानने वाला पीछे से तुम्हे आवाज़ लगा रहा हो या कोई  बस वाला साइड मांगने को हॉर्न बजा रहा हो। पर उन्हें क्या कानो में हेडफोन है दुनिया भाड़  में जाये। हाँ बस वाला साइड मार जाये तब सब संगीत प्रेम काफूर  जाता है तब ये कोई नही कहता की हमने साइड नही दी थी बस को। क्योंकि कानो में संगीत की आवाज़ आ रही थी न की हॉर्न की। रोज अखबार में देखता हूँ की रेल की पटरियों पर भी लोग कानो में संगीत बजाये टहलते  है या पार करते  है पीछे से रेल आती है लोग शोर मचाते है की हट जाओ रेल आ गयी पर कानो में तो संगीत है और बस। 
     आखिर क्यों इतने लापरवाह है ये मेरे साथी। शायद ये अपने आसपास की दुनिया को अपने स्तर से कम आंकते है और उसकी बातो से बचने के लिए संगीत का सहारा लेते है तभी तो बस में भी बैठेंगे तो हेडफोन लगा के भले ही कंडेक्टर टिकेट लिए शोर मचाता रहे। जबकि घर से बाहर इन्हें अपने कान और आँख खुले रखने चाहियें जैसा की महान लोगो ने कहा  है पर इनसे महान कौन  है कम से कम  ये तो ऐसा  ही मानते है। समाज की बाते न सुनना चाहते न देखना। इनका समाज है फेसबुक और आवाज़ है चैटिंग। बाकि लोग है फालतू और गँवार।
फैशन न० 3
 एक और फैशन जो मै पिछले कुछ वर्षो से महसूस कर  रहा हूँ हमारे आस पास के साथियों का दुआ-सलाम करने का तरीका।  पहले राम-राम , इस्लाम- वलेकुम, सत्श्रीकाल , नमस्ते तथा प्रणाम आदि महान शब्दो का चलन था जिनके उच्चारण या श्रवण मात्र से ही दिल को अति सुकून  प्राप्त होता है। जब भी दो या अधिक का  होता था तो इन्ही शब्दो के साथ सम्मान के साथ बात  शुरु होती थी। 
   पर अब ऐसा शब्द खुल्ले आम सुनने को नही मिलते। इनका स्थान ले लिया है हाय- हेल्लो  ने। ख़ैर मैं इनका भी विरोधी नही हूँ पर जिस प्रकार से मेरे साथीगण हाय- हेल्लो करते है वो  भी गलत है।
    मैने  देखा है कि लोग हाय भी कहते है और किसी को सुनाई  भी नही पड़ता है  केवल होठो से हाय कहने जैसी डिज़ाइन बना देते है आवाज़ नही निकलते आखिर क्यों निकाले उर्जा का हास् होता है मुफ्त में ही ,अरे यार जब काम बिना आवाज़ के ही  रहा है तो आवाज़ क्यों निकाले भई। और सामने वाला भी  इस सम्मान को पा कर  गद गद महसूस करता है खुद को। मेरी समझ ये नही आता जब इतनी शर्म आती है तेज़ आवाज में दुआ सलाम करने में तो लोग करते ही क्यों है क्या जरूरत है डिज़ाइन बनाने की भी। भारत के संविधान में तो इसी कोई मजबूरी दिखाई नही गयी है आम नागरिक की।  मै आज भी तेज़ आवाज़ में सर उठा कर सभी छोटो बडो राम राम करता हूँ और मुझे ऐसा  करके गर्व महसूस  होता है

 



       

मंगलवार, 21 मई 2013

तुम तो पैदा ही "उनकी" सेवा करने को हुए हो

एक दिन पहले ही घर गया हुआ था तो माता जी के कहने पर गाँव से निकटम कस्बे में बाजार करने गया था कि चप्पलो ने साथ देने से इंकार कर दिया और एक चप्पल ने खुद को घायल करते हुए ये सन्देश मुझे दे दिया की बिना उसकी मरम्मत के उसका मुझे घर तक पहुंचना असम्भव है। सोचा की चुंगी पर इसकी इसकी सेवा भी करा दी जाये अतः रुक गये चुंगी पर एक मोची चचा के पास। चचा काफी कमजोर और यही कोई 60 की उम्र के रहे होंगे पर गरीबी और अभाव के कारण प्रतीत 70 के होते थे। चचा ने ग्राहको की सेवा के लिए उसी पेड़ के नीचे 2 कुर्सियां भी डाल रखी थी और वक्त यही कोई दोपहर एक बजा होगा। मैने चचा को चप्पल दे दी चाचा ने भी  सही कर दी फटा-फट और मैं वही कुर्सी पर सवारी के इंतजार में बैठ गया। तभी गांव के ही एक भइया यही कोई उम्र होगी 68  साल(हम दोनों की उम्र में लगभग 45 का अन्तर पर भईया ही लगते है वो मालूम नही उनकी पीढ़ी आगे चल रही है या हमारी ) के करीब, भूतपूर्व हैड मास्टर और स्वभाव में बहुत मजाकिया जो हर बात पर चुटकले छोड़ते है , भी अपनी एक  दादा आदम के जमाने की चप्पल  देते चचा को देते हुए बोले कि "इसे भी कर दे यार पैसा आ कर देता हूँ और चले गये"। मोची चचा ने भी कर दी कुछ देर में भइया  आये और चप्पल मांगते हुए बोले की कितना पैसा  हुआ भई?

मोची चचा:- 5 रुपया 
भइया :-अच्छा 

      तभी भइया ने जो चप्पल सही कराई थी उसकी मरम्मत को अपनी पैनी, मास्टर वाली नजर से जांचना शुरु किया वो भी ऐसे की कोई परिपक्क फुट-वियर अभियंता भी न कर पाए। 

भइया :- अरे कर दी तूने SC(अनुसूचित जाती ) वाली बात।

मोची  नही समझ पाया  की भईया ने किस कारण ये बात कही है और न ही मै।

मोची चचा:- क्या हुआ ?
भइया :- देख ये तूने 2 कील ठोकी है बस, वो भी अभी निकलने को तैयार है और पैसे मांग रहा है 5 रुपया।
मोची चचा:-अरे ढंग से तो की है नही उखड़ेगी ये बहुत तजुर्बा है मेरे को।
भइया :- चल जाएगी 2-4 साल?
मोची चचा:-अबे 2-4 तो तेरा और मेरा ही नही पता चलेगा की नही। एक पैर केले के छिलके पर है और एक गड्ढे मे।
भइया :- साले तू पक्का SC है रे।
मोची चचा:-  फालतू मत बोल पैसे दे।
भइया :- पैसे देते हुए साले वैसे हो तुम BPL हो। ( मुझे इसका मतलब समझाते हुए बोले- बेटे BPL मतलब below poorty line ) और कमाई करते को इनकम टेक्स यानी आयकर देने लायक। सरकार को पहले तुम पर  छापा डलवाना चहिये। बताओ साला 1 मिनट के काम के पाँच रुपया और काम  भी घटिया ऐसे तो तू शाम तक 1500 रूपये कमा  लेगा  फिर कैसा BPL हुआ तू। तू तो इनकम टेक्स के दायरे में है साले ।

मोची चचा:-  अबे तो यहाँ झक्क मराने को थोडे ही बैठे है ( मूल शब्द कुछ और थे पर उनका जिक्र यह सही नही)
भइया :- तो साले  इसका मतलब ये थोड़े ही है की तू डिप्टी कलेक्टर या नायब तहसीलदार के बराबर कमाये। वो भी मुफ्त में
मोची चचा:-  अबे तो महंगाई न बढ़ गयी है अब जब सरकारी अफसरों की तनख्वाह बढ़ रही है तो में न बढ़ाऊं  पैसा साले।
भइया :- अरे  साले  अफसर से तुलना कर रहा है अपनी साले  कहाँ वो पवित्र गंगा नदी और कहा ये तेरे पीछे बहता गंदा नाला। साले अफसर तो well qualified  होते है यानि पढ़े लिखे तब उन्हें इतना मिलता है उसमे भी आयकर। और तू कहाँ का जज है 
मोची चचा:-  अबे तू अपना काम कर  चल निकल यहाँ से।
भइया :-साले  अफसरों की क्लास होती है तुम तो बने ही हो उनकी सेवा करने के लिये।

बस अब तक में दोनों की बहस में आनन्द के साथ सुन रहा था क्योकि दोनो  हम उम्र समान तोर पर बरबरी से अपना पक्ष रख रहे थे पर वो जो अंतिम पंक्ति भइया ने कही मुझे बहुत अजीब लगा और मैने वही टोक दिया भइया  ये आप की गलत बात है ऐसा  नही कहना चहिये किसी को भी  की तुम गरीब हो तो इसका मतलब ये नही की अमीरों की सेवा करने को ही पैदा हुए हुए हो।
             भईया  ने मुझे कहा नही ये सच है  मैने कहा नही। हरगिज़  नही 
 उसके बाद भइया  मुझे घूरते हुए चले गये और आँखों-2  में कह गये की घर मिल तेरे बापू से खबर लिवाता हु तेरी कि बडो लोगो  से बहस करने लगा है लडका जब से बाहर पढने गया है।
खैर बापू के पास बात आयी बापू जानते थे की मै गलत नही था  कुछ नही कहा।
           पर सवाल ये है की कब लोग अपनी मानसिकता को बदलेंगे गरीबो के प्रति ऊपर वाले ने तो उन बेचारो को खुद ही  यहाँ  परेशानीयों  का टोकरा सिर पर  रख के भेजा है क्यूँ और हम इन्हें परेशान करते है?
            कोई गरीब है तो इसक मतलब ये नही की उसका धर्म ही हो अमीरों की सेवा करना और उनकी बातें भी सुनना।  नही, उसे भी सम्मान से जीने का हक है अपनी मर्जी  से जी  खा सकता है, कम से कम संविधान ने तो उसे ये हक दिया ही है।  पता नही लोग कब ऐसा शुरु करेंगे?


 

 

 

सोमवार, 6 मई 2013

सट्टेबाजी - एक घातक वायरस

शायद यहाँ मुझे ये बताने की जरूरत नही है कि सट्टा , एक जुआ खेल है जिसके बारे हमारे बुजुर्ग लोग कहते आये है कि जो भी इस खेल की लत में आया है बरबाद हुए बिना वापस नहीं निकल पाया है। मैंने स्वयं बहुतो को जुआ की लत से बरबाद होते देखा है।
            मै पिछले कुछ वर्षो से IPL में सट्टे की कहानी तरह तरह के लोगो से सुनता आ रहा हूँ। ओर मुझे उन सब कहानीयों पर भरोशा भी है क्योंकि सभी कहानी विश्वास-पात्र लोगो के माध्यम से बतायी गयी थी। वैसे सट्टेबाज़ी  IPL के अलावा भी वर्ष भर चलने वाली सतत - गैर कानूनी प्रक्रिया है। लोगो से मालूम हुआ था की  IPLके मैच  में सट्टे में पैसा  लगाने के लिए कही जाने की भी आवश्यकता नही और  न अपना नाम पता आदि बताने की कोई जरूरत है। केवल एजेंट के माध्यम से रकम बता दो जो भी लगनी हो और आपका पैसा लग जाता है तथा  इस पूरी प्रक्रिया में सबसे ज्यादा ईमानदारी बरती जाती है जैसे की लगाया हुआ पैसा मैच का परिणाम आने के बाद वसूला या जीता हुआ पैसा लौटाया  जाता है। एक-एक पाई का हिसाब एजेंट के माध्यम से अगले दिन ही हो जाता है। फ़ोन से सारा खेल चलता है। पर आज इस सारे खेल का एक उदाहरण देखा और उसने मुझे ये सोचने को मजबूर कर दिया कि आखीर किस हद तक ये सट्टा रूपी घातक वायरस अपने पैर पूरे समाज में पसार चुका है कि  इसकी चपेट में आज पढ़े-लिखे नौजवान, व्यवसायी, अनपढ लोग, कमजोर मजदूर वर्ग, और आज देखा कि बच्चे भी आ चुके है।
           आज कल मै मेरठ में जहाँ रहता हूँ उसी गली में एक और मकान है जिसमे मेरा एक सहपाठी भी रहता है। इसी कारण उस मकान में अक्सर आना जाना लगा रहता है जिस के कारण उस मकान के सभी सदस्यों से  जान पहचान सी हो गयी है। उसी मकान में मकान स्वामी का एक लड़का है जिसकी यही कोई 15 साल की उम्र होगी तथा कक्षा दस का छात्र है। पिछले दिनो ही उसी मकान के कुछ और छात्रो ने मुझे बताया था कि " भैया , लगता है छोटू(मकान स्वामी का पुत्र ) सट्टेबाजी में पड गया है "  मुझे ये सुन के विश्वास नही हुआ और उन्हें डांट लगाई की क्यों किसी बच्चे को उड़ा रहे हो। पर उन छात्रो ने मुझे बताया कि भइया आज कल भुत लड़के आते है इसके पास , और आजकल इसने मोबाइल भी ले लिया है तथा जो भी फ़ोन आते है बाहर जा कर बात करता है जबकि पहले ऐसा नहीं था। इस बार मुझे कुछ शक सा हो गया क्योंकि कुछ दिन पहले ही छोटू ने, एक उसकी हमउम्र लड़के के साथ, रास्ते में ये पुछा था की "भइया आज हैदराबाद या पंजाब में से कौन जीतेगा ?" तब मैने साधारण यही सोचा था  की ऐसे  ही पूछ लिया होगा। पर अब मुझे शक  हो चूका था और मैंने सोचा  कि ये अभी बच्चा है इसे गलत-सही का ज्ञान नही है इसे समझाऊंगा मैं तथा हो सकेगा तो इसके हमने बापू से भी शिकायत करूंगा अगर समझाने से नही माना तो। अगले ही दिन मैने तथा मेरे सहपाठी ने उसे समझाया तथा उससे तमाम  गिरोह के बारे में पूछा  तो उसने(छोटू) बोला  की "भइया मै तो केवल एजेंट हूँ  तथा जीतने  वाले लोगो से जीत का 25% लेता हूँ  हरने वालो से कुछ नही लेता तथा  जो लोग पैसा लगवाना चाहते है उनकी जानकारी आगे पहुंचा देता हूँ "
       ख़ैर वो हमारे डांटने से वो कुछ  डर गया और बोला  पापा से मत कहना मै ये सब आज ही छोड़ दूँगा पर हमने उसके बापू के कण में बात दल दी। ये किस्सा तो यही  खत्म हो गया पर अभी थोड़ी देर पहले  जब बाहर दरवाज़े पर  खडा था तो एक और  गली का लड़का आकर  खडा  हो गया मेरे पास और  वही IPL का किस्सा शुरु कर  की  "भाई साहब  कौन जीतेगा ?" मैने भी तुरन्त पूछ लिया "सट्टा लगाता है तू भी ?" वो बोला हाँ भइया। तथा शान से सिर उठा के बोला कि रात 500 रूपये हार गया मै। कुछ ही देर में एजेंट भी आ लिए  हार  का पैसा वसूलने को उस लड़के से, जो की मेरे पास खडा था । वो ही, एजेंटो की 15 साल के करीब की उम्र और तीन छात्र थे वो एजेंट लडके, जिन्हें देखने से मालूम होता था कि कही से ट्यूशन पढ़ के आ रहे होंगे सोचा की पैसे भी उघाते चलें । पैसे लिये और चल दिये चलते-चलते आज के भाव भी बता गये की "आज तो भाव ही नही है लगाने का कोई फायदा भी नही है"।
         इस सारे वाकये ने मुझे ये सोचने को मजबूर कर दिया है कि किस कदर ये सट्टा हमारी नई पीढी को बरबाद करने पर आमदा है. इस सट्टे बाजी में इन   सब अबोध बच्चो को क्यों फंसाया जा रहा है ? आखिर इन के आने वाले भविष्य से क्यों खेल रहे है लोग? ये बच्चे जो की नादान है उन्हें ही हथियार बना लिया गया है इस धन्धे का ताकि किसी को शक  भी न हो और कम भी चल निकले।  ये छोटू जैसे बच्चे हमारे आप के छोटे भाई भी हो सकते है। और क्यों पुलिस या सरकार  इस सब को रोकने का उपाय नही कर  रही है ? जिम्मेदारी हमारी और आप की भी है की आसपास नज़र रखे ताकि कोई इस प्रलोभन की गिरफ्त में न फंसे।