आज कल के समय में जब तमाम समाज मे अनेको माध्यमों से महिलाओ के बारे मे नयी सोच बनाने ओर बराबरी में ला के खडा करने की अपील की जा रही है उसी श्रंखला में पेश है महात्मा गांधी जी के विचार .....
समाज में स्त्रियों की स्थिति और भूमिका
आदमी जितनी बुराइयों के लिए जिम्मेदार है उनमें सबसे ज्यादा घटिया, बीभत्स और पाशविक बुराई उसके द्वारा मानवता के अर्धांग अर्थात नारी जाति का दुरुपयोग है। वह अबला नहीं, नारी है। नारी जाति निश्चित रूप से पुरुष जाति की अपेक्षा अधिक उदात्त है; आज भी नारी त्याग, मूक दुख-सहन, विनम्रता, आस्था और ज्ञान की प्रतिमूर्ति है। (यंग, 15-9-1921, पृ. 292)
स्त्री को चाहिए कि वह स्वयं को पुरुष के भोग की वस्तु मानना बंद कर दे। इसका इलाज पुरुष की अपेक्षा स्वयं स्त्री के हाथों में ज्यादा है। उसे पुरुष की खातिर, जिसमें पति भी शामिल है, सजने से इंकार कर देना चाहिए। तभी वह पुरुष के साथ बराबर की साझीदार बन सकेगी। मैं इसकी कल्पना नहीं कर सकता कि सीता ने राम को अपने रूप-सौंदर्य से रिझाने पर एक क्षण भी नष्ट किया होगा। ( यंग, 21-7-1921, पृ. 229)
यदि मैंने स्त्री के रूप में जन्म लिया होता तो मैं पुरुष के इस दावे के विरुद्ध विद्रोह कर देता कि स्त्री उसके मनबहलाव के लिए ही पैदा हुई है। स्त्री के हृदय में स्थान पाने के लिए मुझे मानसिक रूप से स्त्री बन जाना पडा है। मैं तब तक अपनी पत्नी के हृदय में स्थान नहीं पा सका जब तक कि मैंने उसके प्रति अपने पहले के व्यवहार को बिलकुल बदल डालने का निश्चय नहीं कर लिया। इसके लिए मैंने उसके पति की हैसियत से प्राप्त सभी तथाकथित अधिकारों को छोड दिया और ये अधिकार उसी को लौटा दिए। आप देखेंगे कि आज वह वैसा ही सादा जीवन जीती है जैसा कि मैं।
वह न कोई आभूषण धारण करती है, न अलंकार। मैं चाहता हूं कि आप भी उसी की तरह हो जाओ। अपनी मौज-मस्तियों की गुलामी और पुरुष की गुलामी छोडो। अपना शृंगार करना छोडो, इत्र और लवैंडरों का त्याग कर दो; सच्ची सुगंध वह है जो तुम्हारे हृदय से आती है, यह पुरुष को ही नहीं अपितु पूरी मानवता को मोहित करने वाली है। यह तुम्हारा जन्मसिद्ध अधिकार है। पुरुष स्त्री से उत्पन्न होता है, उसकी मांस-मज्जा से बना है। अपनी प्रतिष्ठा पुनः प्राप्त करो और अपना संदेश फिर सुनाओ।(यंग, 8-12-1927, पृ. 406)
समाज में स्त्रियों की स्थिति और भूमिका
आदमी जितनी बुराइयों के लिए जिम्मेदार है उनमें सबसे ज्यादा घटिया, बीभत्स और पाशविक बुराई उसके द्वारा मानवता के अर्धांग अर्थात नारी जाति का दुरुपयोग है। वह अबला नहीं, नारी है। नारी जाति निश्चित रूप से पुरुष जाति की अपेक्षा अधिक उदात्त है; आज भी नारी त्याग, मूक दुख-सहन, विनम्रता, आस्था और ज्ञान की प्रतिमूर्ति है। (यंग, 15-9-1921, पृ. 292)
स्त्री को चाहिए कि वह स्वयं को पुरुष के भोग की वस्तु मानना बंद कर दे। इसका इलाज पुरुष की अपेक्षा स्वयं स्त्री के हाथों में ज्यादा है। उसे पुरुष की खातिर, जिसमें पति भी शामिल है, सजने से इंकार कर देना चाहिए। तभी वह पुरुष के साथ बराबर की साझीदार बन सकेगी। मैं इसकी कल्पना नहीं कर सकता कि सीता ने राम को अपने रूप-सौंदर्य से रिझाने पर एक क्षण भी नष्ट किया होगा। ( यंग, 21-7-1921, पृ. 229)
यदि मैंने स्त्री के रूप में जन्म लिया होता तो मैं पुरुष के इस दावे के विरुद्ध विद्रोह कर देता कि स्त्री उसके मनबहलाव के लिए ही पैदा हुई है। स्त्री के हृदय में स्थान पाने के लिए मुझे मानसिक रूप से स्त्री बन जाना पडा है। मैं तब तक अपनी पत्नी के हृदय में स्थान नहीं पा सका जब तक कि मैंने उसके प्रति अपने पहले के व्यवहार को बिलकुल बदल डालने का निश्चय नहीं कर लिया। इसके लिए मैंने उसके पति की हैसियत से प्राप्त सभी तथाकथित अधिकारों को छोड दिया और ये अधिकार उसी को लौटा दिए। आप देखेंगे कि आज वह वैसा ही सादा जीवन जीती है जैसा कि मैं।
वह न कोई आभूषण धारण करती है, न अलंकार। मैं चाहता हूं कि आप भी उसी की तरह हो जाओ। अपनी मौज-मस्तियों की गुलामी और पुरुष की गुलामी छोडो। अपना शृंगार करना छोडो, इत्र और लवैंडरों का त्याग कर दो; सच्ची सुगंध वह है जो तुम्हारे हृदय से आती है, यह पुरुष को ही नहीं अपितु पूरी मानवता को मोहित करने वाली है। यह तुम्हारा जन्मसिद्ध अधिकार है। पुरुष स्त्री से उत्पन्न होता है, उसकी मांस-मज्जा से बना है। अपनी प्रतिष्ठा पुनः प्राप्त करो और अपना संदेश फिर सुनाओ।(यंग, 8-12-1927, पृ. 406)
अबला नहीं-
नारी को अबला कहना उसकी निंदा करना है; यह पुरुष का नारी के प्रति अन्याय है। यदि शक्ति का अर्थ पाशविक शक्ति है तो सचमुच पुरुष की तुलना में स्त्री में पाशविकता कम है। और यदि शक्ति का अर्थ नैतिक शक्ति है तो स्त्री निश्चित रूप से पुरुष की अपेक्षा कहीं अधिक श्रेष्ठ है। क्या उसमें पुरुष की अपेक्षा अधिक अंतःप्रज्ञा, अधिक आत्मत्याग, अधिक सहिष्णुता और अधिक साहस नहीं है ? उसके बिना पुरुष का कोई अस्तित्व नहीं है। यदि अहिंसा मानव जाति का नियम है तो भविष्य नारी जाति के हाथ में है... हृदय को आकर्षित करने का गुण स्त्री से ज्यादा और किसमें हो सकता है? (यंग, 10-4-1930, पृ. 121)
नारी को अबला कहना उसकी निंदा करना है; यह पुरुष का नारी के प्रति अन्याय है। यदि शक्ति का अर्थ पाशविक शक्ति है तो सचमुच पुरुष की तुलना में स्त्री में पाशविकता कम है। और यदि शक्ति का अर्थ नैतिक शक्ति है तो स्त्री निश्चित रूप से पुरुष की अपेक्षा कहीं अधिक श्रेष्ठ है। क्या उसमें पुरुष की अपेक्षा अधिक अंतःप्रज्ञा, अधिक आत्मत्याग, अधिक सहिष्णुता और अधिक साहस नहीं है ? उसके बिना पुरुष का कोई अस्तित्व नहीं है। यदि अहिंसा मानव जाति का नियम है तो भविष्य नारी जाति के हाथ में है... हृदय को आकर्षित करने का गुण स्त्री से ज्यादा और किसमें हो सकता है? (यंग, 10-4-1930, पृ. 121)
यदि पुरुष ने अपने अविवेकपूर्ण स्वार्थ के वशीभूत होकर स्त्री की आत्मा को इस तरह कुचला न होता और स्त्री 'आनंदोपभोग' का शिकार न बन गई होती तो उसने संसार को अपनी अंतर्हितअनंत शक्ति का परिचय दे दिया होता। जब स्त्री को पुरुष के बराबर अवसर प्राप्त हो जाएंगे और वह परस्पर सहयोग और संबंध की शक्तियों का पूरा-पूरा विकास कर लेगी तो संसार स्त्री-शक्ति का उसकी संपूर्ण विलक्षणता और गौरव के साथ परिचय पा सकेगा। (यंग, 7-5-1931, पृ. 96)
मेरा मानना है कि स्त्री आत्मत्याग की मूर्ति है, लेकिन दुर्भाग्य से आज वह यह नहीं समझ पा रही कि वह पुरुष से कितनी श्रेष्ठ है। जैसा कि टाल्सटॉय ने कहा है, वे पुरुष के सम्मोहक प्रभाव से आक्रांत है। यदि वे अहिंसा की शक्ति पहचान लें तो वे अपने को अबला कहे जाने के लिए हरगिज राजी नहीं होंगी। ( यंग, 14-1-1932, पृ.19)
स्थान-व्यतिक्रम
स्त्री पुरुष की सहचरी है, उसकी मानसिक क्षमताएं पुरुष के बराबर हैं। पुरुष के छोटे-से-छोटे कार्यकलाप में भाग लेने का उसे अधिकार है और जितनी स्वाधीनता और आजादी का हकदार पुरुष है, उतनी ही हकदार स्त्री भी है।
स्त्री को कार्यकलाप के अपने क्षेत्र में सर्वोच्च स्थान पाने का वैसा ही हक है जैसा कि पुरुष को अपने क्षेत्र में है। स्वभावतया यही स्थिति होनी चाहिए; ऐसा नहीं है कि स्त्री के पढ-लिखे जाने पर ही वह इसकी हकदार बनेगी।
गलत परंपरा के जोर पर ही मूर्ख और निकम्मे लोग भी स्त्री के ऊपर श्रेष्ठ बनकर मजे लूट रहे हैं, जब कि वे इस योग्य हैं ही नहीं और उन्हें यह बेहतरी हासिल नहीं होनी चाहिए। स्त्रियों की इस दशा के कारण ही हमारे बहुत-से आंदोलन अधर में लटके रह जाते हैं।(स्पीरा, पृ. 4)
स्थान-व्यतिक्रम
स्त्री पुरुष की सहचरी है, उसकी मानसिक क्षमताएं पुरुष के बराबर हैं। पुरुष के छोटे-से-छोटे कार्यकलाप में भाग लेने का उसे अधिकार है और जितनी स्वाधीनता और आजादी का हकदार पुरुष है, उतनी ही हकदार स्त्री भी है।
स्त्री को कार्यकलाप के अपने क्षेत्र में सर्वोच्च स्थान पाने का वैसा ही हक है जैसा कि पुरुष को अपने क्षेत्र में है। स्वभावतया यही स्थिति होनी चाहिए; ऐसा नहीं है कि स्त्री के पढ-लिखे जाने पर ही वह इसकी हकदार बनेगी।
गलत परंपरा के जोर पर ही मूर्ख और निकम्मे लोग भी स्त्री के ऊपर श्रेष्ठ बनकर मजे लूट रहे हैं, जब कि वे इस योग्य हैं ही नहीं और उन्हें यह बेहतरी हासिल नहीं होनी चाहिए। स्त्रियों की इस दशा के कारण ही हमारे बहुत-से आंदोलन अधर में लटके रह जाते हैं।(स्पीरा, पृ. 4)
स्त्री ने अनजाने में अनेक विचक्षण उपायों से पुरुष को विविध प्रकार से फंसाया हुआ है और इसी प्रकार, पुरुष ने भी स्त्री को अपने ऊपर वर्चस्व प्राप्त न करने देने के लिए अनजाने में उतना ही किंतु व्यर्थ संघर्ष किया है। परिणामतः एक गतिरोध की स्थिति उत्पन्न हो गई है। इस दृष्टि से देखें तो यह एक गंभीर समस्या है जिसका समाधान भारत माता की प्रबुद्ध बेटियों को करना है। उन्हें पश्चिम के तरीकों का अनुकरण नहीं करना है, जो शायद वहां के वातावरण के अनुकूल है। उन्हें भारत की प्रकृति और यहां के वातावरण को देखकर अपने तरीके लागू करने होंगे। उनके हाथ मजबूत, नियंत्रणशील, शुचिकारी और संतुलित होने चाहिए जो हमारी संस्कृति के उत्तम तत्वों को तो बचा रखें और जो कुछ निकृष्ट तथा अपकर्षकारी है, उसे बेहिचक निकाल फेंकें। यह काम सीताओं, द्रौपदियों, सावित्रियों और दमयंतियों का है, मुस्तंडियों और नखरेबाज स्त्रियों का नहीं।
पुरुष ने स्त्री को अपनी कठपुतली समझ लिया है। स्त्री को भी इसका अभ्यास हो गया है और अंततः उसे यह भूमिका सरल और मजेदार लगने लगी है, क्योंकि जब पतन के गर्त में गिरने वाला व्यक्ति किसी दूसरे को भी अपने साथ खपच लेता है तो गिरने की क्रिया सरल लगने लगती है। (हरि, 25-1-1936, पृ. 396) मेरा दृढ़ मत है कि इस देश की सही शिक्षा यह होगी कि स्त्री को अपने पति से भी 'न' कहने की कला सिखाई जाए और उसे यह बताया जाए कि अपने पति की कठपुतली या उसके हाथों में गुडिया बनकर रहना उसके कर्तव्य का अंग नहीं है। उसके अपने अधिकार हैं और अपने कर्तव्य हैं। (हरि, 2-5-1936, पृ. 93) सही शिक्षा
मैं स्त्री की उचित शिक्षा में विश्वास करता हूं। लेकिन मेरा पक्का विश्वास है कि पुरुष की नकल करके या उसके साथ होड लगाकर वह दुनिया में अपना योगदान नहीं कर सकेगी। वह होड लगा सकती है, पर पुरुष की नकल करके वह उन ऊंचाइयों को नहीं छू सकती जिनका सामर्थ्य उसके अंदर है। उसे पुरुष का पूरक बनना है। ( हरि, 27-2-1937, पृ. 19)
मुझे भय है कि आधुनिक लडकी को आधे दर्जन छैलाओं की प्रेमिका बनना अच्छा लगता है। उसे जोखिम पसंद है... वह जिस तरह के वस्त्र धारण करती है वे उसे हवा, पानी और धूप से बचाने के लिए नहीं बल्कि लोगों का ध्यान अपनी ओर आकर्षित करने के लिए होते हैं। वह रंग-रोगन लगाकर और असाधारण दिखाई देने का प्रयास करके प्रकृतिदत्त सुंदरता को बढाने का उपक्रम करती है। अहिंसा का मार्ग ऐसी लडकियों के लिए नहीं है।( हरि, 31-12-1938, पृ. 409)
(स्त्रोत : महात्मा गांधी के विचार)
पुरुष ने स्त्री को अपनी कठपुतली समझ लिया है। स्त्री को भी इसका अभ्यास हो गया है और अंततः उसे यह भूमिका सरल और मजेदार लगने लगी है, क्योंकि जब पतन के गर्त में गिरने वाला व्यक्ति किसी दूसरे को भी अपने साथ खपच लेता है तो गिरने की क्रिया सरल लगने लगती है। (हरि, 25-1-1936, पृ. 396) मेरा दृढ़ मत है कि इस देश की सही शिक्षा यह होगी कि स्त्री को अपने पति से भी 'न' कहने की कला सिखाई जाए और उसे यह बताया जाए कि अपने पति की कठपुतली या उसके हाथों में गुडिया बनकर रहना उसके कर्तव्य का अंग नहीं है। उसके अपने अधिकार हैं और अपने कर्तव्य हैं। (हरि, 2-5-1936, पृ. 93) सही शिक्षा
मैं स्त्री की उचित शिक्षा में विश्वास करता हूं। लेकिन मेरा पक्का विश्वास है कि पुरुष की नकल करके या उसके साथ होड लगाकर वह दुनिया में अपना योगदान नहीं कर सकेगी। वह होड लगा सकती है, पर पुरुष की नकल करके वह उन ऊंचाइयों को नहीं छू सकती जिनका सामर्थ्य उसके अंदर है। उसे पुरुष का पूरक बनना है। ( हरि, 27-2-1937, पृ. 19)
मुझे भय है कि आधुनिक लडकी को आधे दर्जन छैलाओं की प्रेमिका बनना अच्छा लगता है। उसे जोखिम पसंद है... वह जिस तरह के वस्त्र धारण करती है वे उसे हवा, पानी और धूप से बचाने के लिए नहीं बल्कि लोगों का ध्यान अपनी ओर आकर्षित करने के लिए होते हैं। वह रंग-रोगन लगाकर और असाधारण दिखाई देने का प्रयास करके प्रकृतिदत्त सुंदरता को बढाने का उपक्रम करती है। अहिंसा का मार्ग ऐसी लडकियों के लिए नहीं है।( हरि, 31-12-1938, पृ. 409)
(स्त्रोत : महात्मा गांधी के विचार)
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जवाब देंहटाएंनारी को अबला कहना उसकी निंदा करना है यह पुरुष का नारी के प्रति अन्याय है नारी किसी भी रूप में कमजोर नहीं होती है उसके पास उसकी सुंदरता एक ऐसा हतियार है जिससे वह किसी को भी वश में कर सकती है. जैसे सबसे सुन्दर स्री आम्रपाली ने राज्य के सभी पुरुषो को अपनी सुंदरता से मोहित कर लिया था।
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