सोमवार, 3 फ़रवरी 2014

दिल्ली किसकी ? इनकी , इनके बाप की इनके दादा की!!! और किसकी भाई !!!

मेरा घर दिल्ली से लगभग 60  कि.मी. के दायरे में उत्तर प्रदेश में है और दिल्ली में मेरा  आना जाना लगभग  बचपन  से  ही  है और मैने कभी खुद को यहाँ से बाहर का नही समझा।   मैं  यहाँ  के माहौल तथा  रहन सहन से वाकायदा वाकिफ रहा हूँ।  मैं अब लगभग एक महीने से नौकरी के चलते  अपने दोस्तो के साथ दिल्ली में रहने लगा हूँ।  इससे पहले मै मेरठ में 6 साल एक छात्र के तौर पर था। अब बात करते है असली मुद्दे की।  
            तो जनाब  आप तो जानते ही कि बाहर से आकर कहीँ और बसने वालो के साथ कुछ छोटी मानसिकता तथा  घटिया सोच के लोगो का सलूक कैसा होता है।  आप तरह तरह के अख़बार तथा अन्य माध्यमों सुनते ही रहते होंगे कि उधर राज ठाकरे साहब कि सेना किस हद तक नफरत पाले बैठी रहती है कि लोगो को वहा जाने कि सजा मौत भी दे दी जाती है और भी बहुत  उदहारण है आप स्वंम जानते ही है।  मैं सोचता था कि दिल्ली के मन में किसी के लिए कोई भेदभाव नही है ये सभी को स्वीकार कर लेती है करे भी क्यों नही ,  आखिर दिल्ली पुरे देश कि है  न कि किसी खाश की।  
            पर अब मेरा नज़रिया बदल गया है  अब लगता है दिल्ली केवल यहाँ के मूल निवासियों कि ही है क्योंकि यहाँ आने कि सजा भी लोगो को जान के तौर  पर चुकानी पड  रही है।   क्योंकि यहा तो लोगो कि सक्ल का भी मज़ाक बनाया जाता है।  मुझे शर्म आती  है ऐसे लोगो को अपने देश का नागरिक मानने में भी जो किसी निर्दोष कि जान के प्यासे हो सकते हो।  क्या दिल्ली उनके बाप कि है ? या उनकी जागीर है ? अरे हमारे यहाँ कि संस्कृति हमे अतिथि देवो भव:  सीखाती है  पर अब संस्कृति कि परवाह किसे है ? मै  ये कहते हुऐ शर्मिन्दा हूँ कि मैं  उस दिल्ली में रहता हूँ जो पुरे भारत  का दिल है,  पहचान है और जो किसी  अपने देशवासी कि ही जान की  प्यासी हो सकती है।  शायद अब में ये कभी न कह सकूँ कि दिल्ली दिल वालो कि है।  

       मै कुछ दिन से ये सोचता हूँ  कि आखिर इन लोगो को किस बात का डर है कि ये लोग खून के प्यासे हो सकते है खैर कुछ तो होगा ही।  शायद इन्हे लगता हो  कि बाहर  से आ कर ये लोग अच्छा खाशा क्यों कमा रहे है जो इन्हे मिल  रहा है उस पर तो इनके बच्चो का हक़ है।  वजह,   कुछ न कुछ तो है,  कोई न कोई डर  तो इन्हें अहिंसक बना रहा है।  कौन इन्हे आज़ादी देता है कि किसी का मज़ाक बनया जाये। क्या अब हम अपने देश में  ही बेगानो कि तरह रहना सीख लें ? क्या यही आज़ादी के असली मायने है ? 
       आज में खुद इक छोटी सी घटना का शिकार बना।  एक गली से निकला आ  रहा था अपने अपार्टमेंट  के सामने से ही और कुछ देर पहले ही उसी गली से गया भी था  पर आते वक़्त एक  60  के करीब के बूढ़े ने अपने घर के सामने रोक कर पूछा "कहाँ  जावेगा ?" मेने सोचा कि शायद ये रास्ता भटक गया है कहीं जाना होगा  इस लिए पूछ रहा है  मेने बोल दिया  "आपको कहाँ  जाना है ?" इतना सुनते ही वो तो भडक   गया।  बोला "इस गली से आगे नही जा सकता तू।" " वापस हो ले।"  बड़ा अजीब लगा सुन कर।  बहस करने लगा मै भी ।  वो भी हेंकड़ी दिखाने लगा … सोचा अगर इसके कान  के नीचे एक ढंग से केवल एक रख दूँ तो शायद 302  के मामले में जेल कि हवा खानी पड़े।  वो भी देखा जाये तो अगर इसे कुछ कहा तो  देखने वाले मुझे ही कहेंगे कि भाई शाहब,  बूढ़े आदमी है ये तो।  आप को ही समझना चाहिए आप तो पढ़े लिखे है।   अब साला हम पढ़े लिखे है तो गुलामी झेले क्या? रस्ते से चुप चाप अपने घर भी न जाये ? काश वो हम उम्र होता तो जोर आज़माइश हो जाती।  वही २ लड़के भी खड़े सुन रहे थे बोलो कि " भईया ये पागल इंसान है आप वापस ही दूसरी गली से निकल जाओ  ये तो रोज़ रोज़ किसी के साथ अप घर क सामने यही पंगा पाले रहता है।  "  पता नही क्या दिमाग में आया कि चला आया सुन सुना कर।  पर  खुद पर शर्मिंदा हूँ कि क्यों आ गया।   बार बार सोच कर खून खोल रहा है कि कितनी बेज्जती कि बात है यार।  पर वो बूढ़ा था यही मेरी बदकिस्मती थी।  खैर   जो हुआ सो हुआ।  

ओर ऐसा नही है कि मेरे साथ हुआ है तभी मुझे मालूम चला है ऐसा मैने पहले भी होते देखा है  पर वहा मैनें गलत को गलत कहा  है मैं  चुप नही बैठता सकता ।  

 अब लगा आप अंदाज़ा लगा सकते हैं कि कि मैं  यही का हो कर भी  ये सब झेलने कि विवश हुआ तो जो सुदूर से आते है उन पर क्या बीतती होगी।  पर ऊपर वाले का शुक्र है कि यहाँ अच्छे लोग अभी भी है  सभी एक से नही हुए है
 
 मन में सवाल आता ही है कि दिल्ली किसकी ? इनकी , इनके बाप की , इनके दादा की  और किसकी भाई !!!