शुक्रवार, 26 अप्रैल 2013

पाँच साल और एक निष्कर्ष

"पाँच साल और एक निष्कर्ष" है न कुछ अजीब सा शीर्षक। पर है तो है नियमों के विपरीत इसका भी कोई कारण नहीं।
     सर्वप्रथम  ये ऐलान कर देना चाहता हूँ कि मैं अपने धर्म से बेहद प्यार करता हूँ। इसका मतलब ये कतई नही है कि मैं ओर धर्मों से नफरत करता हूँ जी  नहीं। मैं सभी धर्मो के लोगो को बराबर का दर्ज़ा देता हूँ और किसी भी धर्म  में खोट नही निकालता। सभी धर्मो के रीति रिवाजो की बराबर इज्जत करता हूँ।
     साल था 2009 हम पाँच दोस्त पहुँच गये जयपुर घुमने। दरअसल दो दोस्तो का वजीफा आया था सो पहुंच गये थे सभी लोग । जयपुर वास्तव में बहुत ही  नहीं बहुत ज्यादा खूबसूरत शहर है इसमे कोई शक नहीं। सच कहूँ तो वहाँ से वापसी आने का मन ही नही करता। ख़ैर मुददे पर आते है जयपुर के निकट ही है अजमेर शहर और वहाँ  है एक जाना माना प्रसिद्ध पर्यटन स्थल  ख़्वाजा मुईनुद्दीन चिश्ती दरगाह । इसे 'दरगाह अजमेर शरीफ़' भी कहा जाता है। हम सभी दोस्त घुमने गये थे तो वहाँ  भी गये। मन्नत मांगने वालो की भीड़ कहीं भी कम नही होती और जहाँ श्रद्धा जुडी हो वहाँ और भी ज्यादा होती है। वहाँ भी बहुत लोग होते है  सभी कुछ न कुछ पाने  के लिए ऊपर वाले की चौखट पर पहुंचते  है  कोई सुख चैन तलाश में, तो कोई दौलत, तो कोई बीमारी से निजात, तो कोई मन की शान्ति,तो कोई शोहरत के लिए अब तो लोग फिल्म चलवाने को भी जाते है वैसे । 
    हम भी गये थे तो फुल चढाने का विचार आया सो ले लिए फूल जितने के भी जेब ने मुनासिब समझा। ख़ैर मुख्या स्थल मजार पर  लोगो की दम घोटु भीड को चीरते हुए पहुँचे और फूल चढ़ा दिये। वहीं पर दो लोग थे जो बहुत  जोर - २ चिल्ला कर लोगो से गल्ले में दान डालने को बोल रहे थे वो दोनों लोगो को ज़ल्दी ज़ल्दी निकलने को कहते और उस से ज्यादा लोगो को गल्ले में दान डालने को कहते। जिसकी जितनी श्रद्धा और हैसियत वो उतना दे देता। पर उनके मांगने के लहजे से लगता की वो बिन लिये किसी को जाने नही देंगे।
     बस यही बात मेरे एक दोस्त को विचलित कर गयी और  वो वहाँ से बाहर  निकल के सहसा ही  बोल उठा की यार यहाँ के लोग लोगो से बलपूर्वक मांग रहे थे दान को पैसा। हमारे यहाँ कोई ऐसे नही मांगता मंदिरों में। जिसे दान देना है वो खुद ही दे देता है दान ज़बर जस्ती लेने की चीज़ नही है जिसे देना है वो दे देता है। मैं भी उसके शब्दों से उस वक्त  तक सहमत था जब तक की हम साल 2010 में हरिद्वार  कुम्भ में नही गये। वहाँ भी हम  पाँच दोस्त घुमने जा पहुँचे। घूमते हुए माता चंडी  के मंदिर भी गये जहाँ मेरे विचार कुछ बदल गये। मंदिर में अलग जगह पर पंडा लोग अपनी अपनी थाल सजाये बैठे थे और श्रद्धालुओ को आशीर्वाद देने के लिए 10 रूपये की मांग करते। एक मंदिर अनेक पंडे और सभी के अलग अलग थाल। आशीर्वाद के तोर पर वो श्रद्धालु की कमर पर जोर से हाथ की थपकी मरते थे एक थपकी के 10 रूपये और जो न दे उसे एक अपराधी की नज़र से देखते। इसका प्रत्यक्ष उदहारण भी मिला  हमे जब एक दोस्त ने बिना पैसा  दिए कमर झुका दी क्योंकि हम चार लोग पहले ही 10-10 रूपये दे चुके थे और उसने सोचा कि 4 के साथ एक थपकी तो मुफ्त मिलेगी ही पर वो गलत साबित हुआ पंडा ने थपकी मरने से मना ही नही किया बल्कि लड़ने को भी तैयार हो गया।
     बस उस ही दिन में समझ गया धर्म  के नाम पर ये ठग लोग, लोगो को  लूटते है और सीधे साधे लोग दान समझ कर इन्हें पैसा दे भी देते है न जाने कितना पैसा इन सभी धार्मिक स्थानों पर जमा होता है हर वर्ष। पर ये लोग न तो उसका हिसाब देते है न ही उस पैसे को धार्मिक स्थानों  के विकास पर खर्च करते है बस करते है तो उस पैसे का गबन। इस बात का प्रमाण इस बात से मिलता है की जब हम फिर से उसी धार्मिक स्थान पर जाते है तो वहाँ सब कुछ पहले जैसा ही मिलता है न कोई विकास न किसी सुविधा में बढ़ोत्तरी। फिर जाता कहाँ है इतना बड़ा दान का पैसा सीधी सी बात है गबन हो जाता है। और ये जो दान को जबर  जास्ती  उघाते  है लोगो से बार बार मांग के- ये भी तरीका अच्छा नही। दान वो होता है जिसे लोग दिल से ख़ुशी - 2 दें।  न की मरे मन से दे   क्योंकि लोग मांग रहे है उस से दान बल पूर्वक ।
  अभी कुछ दिनों पहले ही सम्पन्न हुए इलाहबाद कुम्भ में भी गया था मैं।  इस बार पाँच दोस्त नही गये बल्कि हम दो दोस्त ही जा पाये। इस बार एक मुस्लिम मित्र था वहाँ पर पुलिस में तो उसी के देख रेख में सारा कुम्भ घुमे। यहीं है प्रसिद्ध अक्षयवट जो यमुना के किनारे किले की चारदीवारी के अन्दर स्थित है। अक्षयवट के पास ही एक छोटा सा मंदिर बनाया गया है। जिसमें राम, लक्ष्मण व सीता की प्रतिमाएं स्थापित की गई है। इस मंदिर में भी गये और  मेरा वो मुस्लिम दोस्त भी साथ था मंदिर में। वहाँ पर भी दान मांगने वालो का भरपूर जमाव था। छोटे से मंदिर में हर मूर्ति के सामने खड़े पंडे मांग रहे थे जैसे बिना दान दिए जाने वालो के दर्शन भगवान स्वीकार ही न करते हो। और इस मांग को देख कर इस बार मेरा वो मुस्लिम दोस्त विचलित हो उठा (ठीक उसी प्रकार जेसे अजमेर में एक  हिन्दू दोस्त)  और बोला की भाई हमारे धर्म में कोई नही मांगता इतना जैसा तुम्हारे यहाँ मांगते है  हालाँकि मैंने उसे समझाने की नाकाम कोशिश भी की अनुभव के आधार पर। पर वो नही माना  शायद उसे भी मेरी तरह सभी कि एक सी हकीक़त मालूम हो जाये  एक दिन इसी की उम्मीद करता हूँ।
  
  

गुरुवार, 11 अप्रैल 2013

हैलो-हैलो आवाज आ रही है?

बात उस जमाने की है साहब, जब हम मुश्किल से तीसरी या चौथी जमात में पढ़ते होंगे तभी से शुरु हो गये  थे हमारे  और फोन के  सम्बन्ध.  वैसे इस दूरभाष यानी टेलिफोन को  हमारे चचा जान ऐलेक्जैंडर ग्रैहैम बेल जी  ने बहुत दिन पहले ह़ी दुनिया को दे दिया था। पर  हम जब गाँव में तीसरी में पढ़ते थे शहर जाना कभी होता नही था।  टेलिफोन का नाम सुन के ही खुश हो जाते थे जब पापा , शहर से आ के दादी को बताते की फोन पे मेरी बुआ जी यानी पापा की दीदी से उनकी बात हुई है और सब राज़ी खुशी है।बडा जोर से मन करता था की हम भी कभी फोन पे बात करें, सोचते थे कि न जाने कैसे बात करनी पड़ती होगी क्या कहना पड़ता होगा ,एवंम फोन सीधा बुआ जी के यहाँ ही कैसे पहुंचता है? और भी बहुत  कुछ, पर इच्छाओ का दमन करके सोचते की जब बड़े हो जायेंगे तब इस मरे फोन को जरुर खरीदेंगे। खैर कक्षा 5 में  हमारा दाखिला पास के शहर में करा दिया गया ओर वहाँ जा के हमारे और फोन में बीच कुछ निकटता आई पर इतनी के पाठशाला(स्कूल) के निकट की STD के  सामने से निकलते बड़ते देख लेते थे कि उधर की क्या होता है? कभी कभार STD पे जा पड़ताल भी करते की कम कैसे करता है फिर एक दिन सोचा की कही  बात की जाये तो सभी दोस्तों की राजी किया सभी से 1-1 रुपया मिला के 5 रुपया इक्कट्ठा करके जा पहुंचे STD पेसारे  लोग और संदीप को (जिसे अपनी की जानकारी का कोई फोन नम्बर याद था) उसे बात करवाई।जैसे ही बात खत्म हुई हम भी फोन से थोडा पीछे हटे कि पूछे क्या बात हुई और कैसे हुई  पर वो संदीप मानो सातवे  आसमान पे था बताए ही ना, खूब पीछे पीछे दौड़ाया नालायक ने पर नही बताई। यकीन मानिये मन की मन में रह गयी पर क्या करते। तभी सभी ने कहा कोई अपने घर नही बतायेगा की हमने कही  फोन किया है मानो कोई अपराध किया हो।
             सोचा अगली बार हम खुद ही  बात करेंगे बुआ जी से पर ये डर की  बुआ जी पिता श्री को बता देंगी फिर सोचते  बेटा  डंडा बहुत बजेगा और जाने देते । खैर एक दो साल कट गये और तब तक भारत सरकार की योजना के तहत ग्राम प्रधान के यहाँ फोन लग चुका था उसके लिए एक ऊँचा सा टावर लगा था सौर उर्जा से वो फोन चलता था पर वो भी हमे को फायदा न दे सका क्योंकि प्रधान का नौकर जिसका भी फोन आता था उस  के घर जा के बता आता था की फला  जगह से  फोन आया था और ये कहने को बोला है। तभी शहर से गांव की ओर को फोन की लाइन खुदनी शुरु गयी थी तब हम साइकिल ले चुके थे और स्कूल में रोज़ 8 किलो मीटर  साइकिल से ही जाते थे। रोज़ आते-जाते खुदाई देखते घंटो तक और मजदूरों से नादानी से पूछते चाचा फोन कब तक लगेंगे वो बेचारे कह देते "हमे का मालूम बेटा"। रोज़ नये से पूछते की शायद इसे मालूम हो पर जबाब एक ही आता और हम उदास हो के साइकिल में पेंडल मरते घर आ जाते. तब तक मोबाइल का नाम सुनना भी शुरु हो चुका  था  पर देखा नही था. लोग बताते कि उसमे को तार नही होता है जेब में ही जाता है सोचते की जब हमरी जेब में होगा ऐसा कोई यन्त्र तो मानो हमारी हैसियत् में चार चाँद लग जायेंगे। फोन लाइन पड  चुकी थी  और पापा ने आवेदन भी कर दिया था पर हमे मालूम नही था उस वक़्त मोबाइल हमारे दिमाग पे सवार था क्योंकि जब पहली बार हमारे  ही गांव के महेन्द्र यादव जी विधायक बने तो वो हाथ में ले के आये थे कुछ, हमने किसी से पूछा  वो क्या है जबाब मिला मोबाइल है । समझिये हमने अपने जीवन में किसी देव के साक्षात दर्शन कर लिए हो, बहुत  ख़ुशी हुई "ये जरुर लेना है" वो बड़ा सा मोबाइल ऊपर से उसकी खोपड़ी से सिग्नल पकड़ने के लिए एंटेना भी निकलता था वाह  क्या चीज़ थी। रात में सो भी ना सके।
       तभी महेन्द्र जी के भतीजे बलराज भैया ने भी मोबाइल ले लिया और वो थे  नेता जी के  निजी सचीव और भतीजे , तो ठाट बाट थे ही  चौराहे पे खड़े हो के जोर जोर से फोन पे बात करे, वो भी धौंस के साथ, कभी कभी पास वाले दो मंजिल मकान की छत पे भी आ जाते और चिल्लाते "हेल्लो हेल्लो आवाज़ आ रही है" में बलराज बोल रहा हूं ! खैर दिल को समझा लेते की बड़े हो जाये तब लेंगे  एक हम भी।
             वो दिन भी आ गया की जब BSNL वाले फोन लगाने गांव में आ गये और गड्ढा खोद के खम्बा गाड  रहे थे मैने मोका देखा कोई नही है तो कान में कह दिया फोन वालो से   भइया  पहले उस घर में लगा देना. खैर लग गया फोन भी सन 2000 की बात है हम 8 वी में थे तब अब गांव में चुनिंदा फोन थे। अब लोग हमारे यहाँ  आते फोन करवाने को हम भी शुरु में शौक - 2  में करवा देते पर शौक  अगले महीने  ही उड़ गया जब बिल आया हिला देने वाला। अब गांव में मना भी नही कर सकते थे किसी को , तो  तय हुआ की फोन पे ताला डलेगा . एक नम्बर लॉक आता था जो फोन के नम्बरों के ऊपर लग जाता था ताले  की तरह। अब पापा को जब कही बात करनी होती तो ताला खोल लेते और फिर लगा देते चाबी छुपा देते उन्हें मालूम था मै  भी बहुत  बिल बैठा रहा हूं इधर उधर वैसे ही नम्बर मिला मिला के।  मेरे भी फोन बंद और बाहर  वालो का भी। उस वक़्त जब फोन लगा ही था घर में  हम बच्चो की उसे के उठाने के लिए भी लड़ाई हो जाती थी की कौन  उठायेगा सभी को बहुत शौक   था इसी लिए एक दो बात पिटाई भी हुई।और आज उठाने  उठाने  को हम  बहुत  बड़ा कम समझते है  बज़ रहा है बजने दो।
          तभी गांव के ही एक पप्पू भइया  ने गांव में STD खोल ली और लोग वहाँ जाने लगे। वो लोगो से फोन सुनने के भी पैसे लेते थे  बहुत लोगो ने  STD का नम्बर अपने रिश्तदारो को दे रखा था  अब अगर किसी का फोन आता तो पप्पू भइया माइक में आवाज़ लगा देते लाउड स्पिकर से कि  फला का फलाँ जगह से फोन है और वो आ जाता सुन के चला जाता था सुनने का अलग चार्ज था । २ रुपया आवाज़ लगाने का भी लेते थे। 
           अब मोबाइल का ज़माना  आ गया था  तथा लोगो  के हाथ में मोबाइल आने शुरु हो गये थे वो रिलायंस वाले सहवाग की माँ वाले प्रचार जैसे मोबाइल का क्रेज़ था । वक़्त था सन 2004 के आस पास का।  लोग हाथ में छोटा सा खिलौना ले के चलते और खली वक़्त में उसकी वो पोलिफोनिक रिंगटोन सुनते और लोगो को सुना के होव्वा बनाते किसी VIP की तरह  । धूम मचा ले -2  की रिंग टोन  ने तो अपनी अलग ही पहचान बनाई। मन करता की कब होगा अपने पास यह । अब टेलिफोन से मोह भंग हो चुका था. और जब लोग अलग अलग सुविधाए बताते मोबाइल की तो  मन ओर  भी ललचा  जाता था कोई वाइब्रेशन के बारे में  बताता  तो कोई फोटो वाला मोबाइल , कोई गाने वाला , कोई कैमरा वाला। आज भले ही आँख के  इशारे पे मोबाइल नाचता हो पर उस वक़्त  वो भी कम नही था बल्कि ज्यादा ही था आज के हिसाब से।
          2006 में जब B.TECH में दाखिला लिया फोन भी मिला जो की मेरे बहन ने अपना वाला  पुराना दिया था  । मानो भगवान मिल गये थे उस वक़्त 2 रूपये की कॉल दर थी फिर सस्ती हुई, फिर रात भर बात के ऑफर आये कुछ खाश लोगो के लिए ओर  फोन अपने पैर फैलता गया। आज उधर उधर देख सकने वाली भी भी  फोन में है कहते है  3G उसे.
         आज हाल ये है की मै फोन साथ रखना किसी आफत से कम  नही समझता बेवजह परेशान करने की मशीन है। और मेरे गांव में बच्चे बच्चे के हाथ में मोबाइल है।चाइना निर्मित मोबाइल धुआं उठा रहे है मजदूर भाई लोगो के हाथ में तेज़ आवाज़ में गाने वाह  क्या बात है मोबाइल से । भारत आगे बढ़ रहा है कोई संदेह नही। अब तो मेरे गांव के बच्चे भी फेसबुक इस्तेमाल कर  रहे है धडल्ले  से  चैट भी करते है जबकि वो गांव में ही रहते है पर जमाने के साथ हैं। पर वो पहले जैसी उत्सुकता कहाँ है कुछ पाने की उसमे अपना ही मज़ा था। अब तो माँ बाप सब कुछ पहले से ही दिला  दे रहें है पर वो पहले दिन गज़ब थे 
           शायद आप लोगो की भी यही कुछ दिलचस्प कहानी हो या ब्लॉग पसंद आये   तो कमेंट करे।  स्वागत है 

रविवार, 7 अप्रैल 2013

ताकि कोई मलाल न रहे

इस जीवन से बहुत कम लोग संतुष्ट होते है इसमें कोई दो राय नही। और बिना किसी उचित प्राप्ति या सफलता के मिले संतुष्ट होना भी इंसाफ नही. बहुत लोगो का मानना है कि संतुष्ट होना ही पतन का कारण है। संतोष को ही संतुष्टि  कहा  जाता है मै अपने इस अल्प जीवन में बहुत  कम संतुष्ट लोगो को जनता हूँ, लगभग एक ऊँगली पर गिने जा सकते है, जो अपने जीवन से पूरी तरह संतुष्ट हो। कोई किसी भी पेशे या रोजगार में क्यों ना हो सब कहते है की वो उस से पुर्णतया संतुष्ट नहीं। आखिर इसका कारण  क्या है की मनुष्य उखड़ा उखड़ा सा रहता है अपने जीवन से, कभी भी हाल पूछो? तो बहुलता में जबाब आता है " कट रही है बस ". इसका सबसे बड़ा कारण है हमारा मनुष्य होना। हमारा दीमाग बहुत  ही चंचल है। इंसान वो सभी सुख सुविधाए  तथा ऊँचाई पाना चाहता है जिसका उसने कभी ख्वाब देखा होता है परन्तु ख्वाब हकीकत तभी बनते है जब उनके लिए प्रयास किया जाये ईमानदारी और लगन के साथ। अक्सर हर इन्सान बड़े ख्वाब देखता ही है जो की देखने भी चाहिये। पर उन सभी को पूरा करने  के लिए भी एक समय निर्धारित होता है की  वो फला काम किसी  विशेष समय अन्तराल में ही पूरा किया जा सकता है  जैसे की उदहारण के लिये अगर किसी को सेना में अफसर  है तो 28  साल की उम्र तक ही बन सकता है ठीक इसी प्रकार हर काम को करने एक नियत वक़्त या समय अन्तराल  होता है चाहे वो कोई लक्ष्य  हो या किसी ओर मंजिल को पाना हो। पर जब वक़्त निकल जाता है तब शुरु होता है असंतुष्टि बुरा दोर जो जीवन  को निराशा में तब्दील कर देता है और इन्सान को मालूम भी नही चलता की वो निराशा के गहरे खतरनाक गर्त में पहुंच चुका है।
     बहुत  से मामलों  में देखने में आता है की मनुष्य के पास अपने ख्वाबो को सँजोने के लिए वक़्त भी है पर वो ज्यादातर वक्त कुछ करता भी नही ख्वाबो को पूरा करने के लिये ये स्थिति और भी ज्यादा घातक  हो सकती है क्योंकि उसके पास वक़्त भी है पर वो उसका सदुपयोग  नही कर पा रहा है और आगे एक वक़्त एसा  भी आएगा की जब उसके पास वक़्त नही होगा और उसे होगा केवल पछतावा। यही  है "कट रही है बस" जेसा वाक्य होंठो पर आने का कारण अगर वक़्त रहते कोई भी मेहनत कर लेता  तो वाक्य ये होता है की " जिन्दगी जी रहे है " और ये एक सकारात्मत वाक्य है इसमें  संतुष्टि का भाव साफ झलकता है  और जब मन माफिक कुछ न हो तो असंतोष पैदा होता ही है स्वभाविक रूप  से। और वही है  असंतुष्टि, जिससे जीवन का रस खत्म सा हो जाता है और हम जीवन से निराश हो जाते है इसके अनेक नुकसान तरह तरह से हमारे सामने आते है।
इन्सान जीवन यापन के लिए मजबूरीवश किसी और कम में लग जाता है  और ख़ुशी का मुखोटा पहनने  की कोशिश करता है पर जब दिल खुश न हो सब कोशिशे बेकार जाती है. और जीवन में शेष रह जाता है मलाल और पछतावा। 
       और सबसे ज्यादा तकलीफ तभी होती है जब दिल कहता है कि "यार उस वक़्त थोडा मेहनत/प्रयास  कर लिया होता तो तस्वीर कुछ ओर  होती आज " वक्त की खुद  को नही दोहराता जो गया सो  गया। 
          इसी लिए जीवन जिस कार्य के लिए मन करे या जिस ऊंचाई को पाना हो,उस कार्य को करने के लिए समय रहते जुट  जाना चाहिये और जब तक मोका मिले प्रयास करते रहना चहिये परिणाम चाहे कुछ हो। आखिर ये मलाल तो न रहेगा भविष्य में की हमने पाने के लिए कुछ किया नही। बल्कि ये कहेंगे हमने किया पर हमारे मुक़्क़्द्द्र में था नही सो हमे मिला नही । असल में सब करना चाहते तो है पर जब  अहसास होता है की कुछ करना है तब तो हमे में उत्साह सारी  दुनिया का आ जाता है मानो। पर लगातार बरक़रार  नही रह पाता। एक दो दिन बाद  उत्साह काफूर हो जाता है और क्योंकि हम ओर  दुनिया दारी  के झमेलों में फंस जाते है और असली काम को भुला देते है और इसका इलाज है द्रढ़ निश्चय की जो ठान ली है वो कर गुजरना है अगर ये भाव एक बार  आ गये तो विश्वास मानिये आप को कोई  रोक नही सकता।
           डॉ परवीन जी इसी विषय पर कहते है कि अभी तुम जवान हो और जवान लोग चला नही करते बल्कि  उड़ा करते है चलते तो वो लोग है जो उड़ नही सकते दोड़ नही सकते। इस लिए जो ठान ली है वो कर गुजरो  ताकि जीवन में कभी किसी चीज़ का मलाल न रहे की .........क्योंकि  जिंदगी न मिलेगी दोबारा